1
एक गाँव, गाँव में नहीं हुई बारिश
बूटों की आवाज़, गोलियों की आवाज़
तलवारों के भाँजने की आवाज़
गाँव में न हुई कोई फ़सल
वर्षा का देवता ग़ुस्से से चला गया देशांतर
खो ही गई सुंदरता
मुस्कुराती हुई चमेली मुँह पर कला
चली गई सुंदरता
ग़रीब की गाय ने किया नहीं गोबर
लीपा नहीं गया चबूतरा
ब्याह के घर में ज़ेवर के झगड़े में
बिठाए नहीं गए पाटे पर (दूल्हा-दुल्हन)
अनाज देने में असमर्थ सैकड़ों देवता
चले गए, जा पड़े अंधे कुओं में
अनाज देने में असमर्थ राजा का दरबार
चलता रहा लगातार
मुँह बाए फिरते हैं ग़रीब
ख़ाली-पेट लोगों के रूखे-सूखे सिरों पर
नाचते हुए आते हैं काले तीर
चोरी हो सकती है, कोई दे सकता है उलट कर जवाब
(निपटने को)
मैदान में तैयारी करते हैं तलवार भाँजने की
चारों ओर हरी वर्षा, उगती है आग की फ़सल
काले लोगों के सिरों पर सफ़ेद-सफ़ेद मटके
पाताल की गहराई में आशा की हथकड़ी से बँधे
कराहते, लोटते-पोटते हैं लोगों के झुंड
आओ ओ वर्षा के देव
धो डालो जीने का दर्द
आसमान फाड़ कर आओ हमारे पास
दिखाओ हमें प्यार और ख़ुशी की रौशनी
घेरे हुए हैं हमें बाड़े
ढहाकर उन्हें आओ वर्षा के देव
बरसो, बरसो, बरसो ओ देव
सूख गया है हृदय-सागर
ग़रीबों की आँखों में नहीं है आँसू
बरसो मूसलाधार वर्षा के देव
लोगों ने देखा इधर-उधर, देखा आसमान की ओर
ग़रीबों के बर्तन-भाँडे, कढ़ाई, पतीली और तसला सब
चले गए मुखिया के घर
भूल जाते हैं दिन और रात
जीने की भी नहीं है कोई गारंटी
ज़मींदार के घर के आसपास
घुप्प अँधेरी रात में
काले लोग पीटते हैं ढोल-नगाड़े
नाचते और गाते हैं
मानो यही ठीक है कि नहीं हुई बारिश
बरसो मूसलाधार ओ वर्षा के देव
फूलों की क्यारियों में पानी नहीं है
गेंदे की क्यारियों में पानी नहीं है
गली के नलों में पानी नहीं है
नलों में पीने के लिए पानी नहीं है
आओ ओ वर्षा के देव
आकर बरसो ओ देव
ख़ाली बर्तन और ख़ाली मटके लिए
नाज-पानी की खोज में
गली-गली फिरते हैं
थककर अगर कोई बैठ जाए किसी की बाड़ की छाँह में
गली में खड़ा हो जाए
दौड़कर आते हैं, डराते-धमकाते हैं, टेंटुआ पकड़ लेते हैं
तलाशते हैं औरतों की धोती की गिरहें
पुरुषों के घुटन्नों की जेबों में हाथ डालते हैं
फिर छोड़ देते हैं
ऐसे कुछ लोगों के झुंड
जहाँ देखो वहीं
हर तरफ़ उन्हीं के चेहरे।
2
एक दिन होती है मूसलाधार बारिश
दरवाज़ों और खपरैलों के छेदों से चमकती है
कड़कड़ाकर गिरती है बिजली
सुनाई नहीं पड़ती एक को दूसरे की बात
घनघोर बारिश
सड़कों-गलियों में आदमी की ऊँचाई जितना बहता है पानी
मेरे ऊपर से निकल जाता है
भीग गया मैं लत्ते की तरह
मकान के ऊपर से बहता पानी
थोड़ा-थोड़ा कम होता था कि
भड़ाने लगा कोई मेरा दरवाज़ा
छत की छोर के खपरैल, खिड़की, बर्तन-भाँडे
धड़धड़ाने लगे
लोहे के बूटों की आवाज़
फट् चोट की आवाज़
धूल चाटने लगा
खोपड़ी के ऊपर की खपरैल,
दरवाज़े और खिड़की की ओर से
चार लोग
भीगे हुए घर में
अर्रा कर आ गए
एक-एक की तीन-तीन आँखें
लाल, सफ़ेद, हरी
दह-दह जलतीं
उन आने वाले लोगों ने
मेरा पहुँचा पकड़
मरोड़ते हुए 'थैंक्स' कहा
अपरिचित एकदम
कुछ भी समझ में नहीं आया
भयभीत हो गया
पाँच साल पहले यही लोग
आए थे माँगने मेरा वोट
क्या इन्होंने ही नहीं दिए थे मुझे नोट
क़र्ज़ न चुका पाने पर
तोड़ी नहीं थी क्या इन्होंने ही मेरी हड्डियाँ
जो सुनते नहीं हैं इनकी बात
लटका देते हैं उन्हें पेड़ से
साँप की रस्सी गले में डालकर
क्या यही नहीं चाकू-छुरियों के दोस्त
मंत्रियों के साथ जो करते हैं
क्या यही नहीं हैं महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी
राम का नाम जपते हुए
क्या यही नहीं है वे लोग
जो अपने निक्करों, टोपियों और थैलों में
लाए हम ग़रीबों की खोपड़ियाँ
भाग यहाँ से—इशारा किया उन्होंने मुझे
उठ न सका मैं, हिलाया अपना सिर
(मना करने की मुद्रा में)
ऐसे नहीं आएँगे ये स्साले रास्ते पर
घसीटा उन्होंने मुझे गली तक
जहाँ काले नाग, अजगर और धामिन-सा
बह रहा था अभी भी पानी
मेरे शरीर से चूता ख़ून
जा मिला पानी से और बना दिया उसे लाल
गली-रस्तों में खेलते बच्चों का
सुनाई पड़ता है गीत-
चलो बटोरें ओले हम
चलो हम खेलें पानी में
चलो इकट्ठे हों सब दोस्त
और बनाएँ बालू के घर
कुआँ हम खोदें हाथों से
देखें निकलता है पानी
चलो बटोरें ओले हम
चलो हम खेलें पानी में
क्या है क्या है क्या यह शोर, क्या है क्या है क्या झगड़ा
कहते हुए बच्चे
सिर पर पैर रख भाग गए
मुझे लगा कि वे मेरे टुकड़े-टुकड़े कर रहे थे
मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरी दस उँगलियाँ और मेरे अँगूठे
हज़ारों मेरे बाल, मेरी नाक, मेरा मुँह
मेरी बत्तीसी उड़ रही थी हवा में
उन्होंने बना दिया मेरी हड्डी का चूरा
अपने बूटों तले
मेरा धैर्य ख़त्म हो चुका था
मेरा अध्ययन-मनन काफ़ूर हो गया
बची रही मेरी आवाज़
'मुर्दाबाद' 'मुर्दाबाद', मैं उन्हें डराने के लिए चिल्लाया
'हूँ'- उन्होंने कहा
निकाला एक सूजा और सुतली
सिल दिए मेरे होंठ
और लगा दिया ताला
गर्दन मरोड़ते हैं
कूटते हैं सिर
आवाज़हीन गले में
सिले हुए होंठों में से घुसेड़ते हैं खाना
पैदा होने के समय की-सी नंगी देह को
रस्सी से बाँधकर धर-धर घसीटा
अगिया मसान-से
अँधेरे में
हाथ में चाँदी की तलवारें ले
घेरे बाँध नाचते हैं
बीहड़, जंगल, पहाड़, पठार सब पार कर
घसीट ले गए मुझे एक खुली जगह
जिसके आसपास थे भाँति-भाँति के बाग़
सिर नीचा किए हुए कुछ, कुछ झुके हुए
कुछ हँसते हुए, कुछ कूदते हुए बाग़
वे गए तलवारों के बाग़
ले आए सोने की तलवारें
वे गए छुरियों के बाग़
ले आए चाँदी की छुरियाँ
मिट्टी के तेल के कुओं में उगती हैं बंदूक़ें
धतूरे के पौधों पर गोला-बारूद, हथगोले
उन लोगों ने मूँड़ दिया मेरा सिर
एक सुनहरी तलवार से
ख़ून चूते हुए मेरे माथे पर
मंत्र पढ़कर लगा दिया तीन लकीरों का वैष्णव चिह्न
मानो लटका देंगे
उन्होंने एक सफ़ेद रस्सी ले
जनेऊ की तरह मेरे धड़ से बाँध दी
चित लिटा कर
सोने की तलवार से
साफ़ कर दिए मेरी छाती के बाल
और चाँदी की कटारी से
कर दिया एक छेद
रक्त बुद्-बुद् बह निकलने पर
दौड़े-दौड़े गए उठा लाए एक पौधा
और रोप दिया
जहाँ से बह रहा था रक्त का फ़व्वारा
वह पौधा
मेरे सारे शरीर में जड़ें फैला कर लहलहाता है
निकलने लगीं डालियाँ और टहनियाँ
जब देने लगा फल-फूल
निकल गई मेरी साँस
एक दिन मैं यूँ ही घूम रहा था
बिना आँखों के बिना टाँगों के
बिना शरीर और बिना साँस के
उसी खेत उसी पेड़ के नीचे
(देखता हूँ)
लोगों का एक बड़ा झुंड
बीच में खड़ा किया गया है एक मंच
वहाँ बैठे हैं बड़े-बड़े लोग मुस्कुराते हुए।
उनके आसपास उकड़ूँ बैठे
हाड़-मांस के पुतले लँगोटों में
कुछ गाते और नाचते हैं
किए इन्होंने बड़े-बड़े काम
किए इन्होंने बड़े-बड़े त्याग
लेकर आओ उन्हें मंच पर
सोने की इनकी कार पहनाओं चंदन का हार
इनके बँगले बड़े-बड़े
सीटें इनकी साफ़ करो
इनकी जेबे बड़ी गहरी
भक्ति-भजन में मस्त रहो
इनकी बेटी बड़ी हुई
ससुर देवता इन्हें कहो
इनकी देहें मोटी हैं
उठा इन्हें तुम नाचो जी
मंच पर बैठे हुए हमारे पूजनीयों के चरणों में नमन
उन की घरवालियों के चरणों में नमन
उनकी संतानों के चरणों में नमन
उनके पूर्वजों के चरणों में नमन
उनके पूर्वजों के पूर्वजों के चरणों में नमन
इस तरह नाचते रहे
ऊपर वाले इन्हें देख
आनंदित हो सिर हिला रहे हैं
इनकी भय-भक्ति हृदय से पसंद कर रहे हैं
'क्या हंगामा है?' कहता हुआ मैं मंच की तरफ़ गया
वहाँ बड़े-बड़े लोगों के पीछे
कुछ लोग बैठे थे
उन्हें देखते ही मैं भय से पीला पड़ गया
वहीं उन बड़े लोगों के पीछे—
वहीं बैठे हैं, वे वहीं बैठे हैं
बिछा ली हैं नीम की पत्तियाँ
ढँक लिया है अपने को नीम की पत्तियों से
पुरानी चप्पलें जलाकर
छापा लगा रहे हैं लोगों की देहों पर
उठवाते हैं भारी पत्थर
इमली के पेड़ से बाँध देते हैं
वहीं बैठे हैं वे वहीं बैठे हैं
नींबू रखे हुए हैं वे
प्रसव मरी हुई औरत की रखी हुई है बाँह (भूत-प्रेत को बाधा दूर करने के उपचार)
थैले में रखे हुए हैं तरह-तरह की हड्डियाँ
मूँछों ही मूँछों हँसते हैं
बड़े-बड़े लोगों के पीछे
वहीं बैठे हैं, वे वहीं बैठे हैं।
- पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 6)
- संपादक : गिरधर राठी
- रचनाकार : सिद्धलिंगय्या
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1994
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.