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वायदा था

wada tha

ममता दाश

ममता दाश

वायदा था

ममता दाश

और अधिकममता दाश

    कई नयी पहेलियाँ

    कहीं से आकर मुझे पुकार रही हैं

    मैं कहीं नहीं जाऊँगी।

    वायदा था,

    जो होना हो सो हो

    इंतज़ार करती रहूँगी, बाक़ी के दिन

    यहीं पर।

    यहीं किसी दिन

    ग्रीष्म ऋतु की दुपहरी में,

    मोर का झुण्ड उड़कर आएगा

    नीले-नीले बादलों के टुकड़े होंगे

    उनको सहस्त्र पंखों में।

    उच्छल आतुर बारिश झरने लगेगी उन बादलों से,

    उस बारिश से जो बाढ़ आएगी,

    उस में मेरे जीवन का सारा दूषित अंचल

    पूरी तरह डूब जाएगा।

    और भी वायदे थे,

    वसंत ऋतु एक दिन अकस्मात् आएगी और

    घर बनाकर रहने लगेगी इन पत्ते झड़े

    पेड़ो के बीच।

    मेरी सारी अस्वस्थता, विफलता से भी

    कोयल की कूक सुनायी देगी,

    उसी दिन

    एकमात्र श्रद्धापूर्ण परिणाम गढ़ा जाएगा

    मेरे सारे दुर्भाग्य और अभिशाप के उपकरणों से।

    और भी सुना था,

    उदित सूर्य शायद कभी एक बार

    रक्तिम लाल गुलाब की माला पहने

    दिगन्त में ठहर जाएगा, पूरे दिन के लिए।

    शताब्दियों से बन रही परंपरा

    चौंककर देखेगी,

    प्रत्येक धूलि-कण बन गया है

    इस विचित्र दृश्य का अक्षय दर्पण।

    सचमुच विचित्र हो जाएगा सब कुछ, मैं जानती हूँ।

    उस समय, मैं जो भी कुछ छुऊँगी

    वहीं सुख की नदी किनारे बहने लगेगी।

    इस किनारे उस किनारे सुख की नावें तैरेंगी,

    उनमें से हर घड़ी सुखपूर्वक खेलते

    बच्चों का किलकारी भरा संगीत सुनायी देगा।

    इससे बढ़कर नयी बात और क्या होगी?

    मैं भला कहीं क्यों जाऊँ?

    जबकी मैं जानती हूँ

    जो भी वायदे थे, पूरे होंगे यहीं

    निश्चित रूप से, कभी कभी।

    प्रमाण भी स्पष्ट हैं।

    जन्मान्ध पृथ्वी ने ख़ुश होकर मुझसे

    अभी-अभी कहा, वह आजकल

    उजाले का अर्थ क्या है, अच्छी तरह समझती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1984 (पृष्ठ 43)
    • संपादक : बालस्वरूप राही
    • रचनाकार : ममता दाश
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1984

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