कथित उत्तर-आधुनिक सदी में
वह आदमी
आदमी होने की निराशा भोग रहा था
कहता जा-जाकर हित मित्रों से
कि उसे दुख है, दिक़्क़त है
जो चाहिए उसकी क़िल्लत है—
कोई उसकी नहीं सुनता
कि भूखा रह जाता है वह
और उसे कोई नहीं पूछता
कि वह काम करते-करते
थक जाता है
और आराम के लिए
कोई नहीं कहता
कहता कि वह रोता रहता है
तो दुनिया हँसने लगती है
इस बात का उसे दुख है
उसे दुख है कि लोग हँसी को
हँसी की तरह नहीं हँसते
उसे दुख था तो वह निराश था
अपने मन की व्यथा-कथा
उसने सबसे कही
उन सबसे जिन पर उसे
भरोसा था कि
वे उसे प्यार करते हैं
उसने कहा
हाल यही रहा तो
वो नहीं रहेगा
उसने रो-रोकर कहा
कि वह कुछ कर लेगा
कि कोई उसकी नहीं सुनता
वैसे उसकी सुनते तो सब
बल्कि कई तो सुनते हुए
उसके साथ-साथ रोने लगते
मगर जब सचमुच ही
उसकी आत्मा दरकने लगती
तब इगी-दुगी तक हँसने लगते
कि वह नौटंकी कर रहा है
आख़िर उसे क्या दुख हो सकता है
सब कुछ तो भरा है उसके यहाँ
यह ठीक था
सब कुछ भरा था उसके यहाँ
लेकिन वह जहाँ भी हाथ डालता
ख़ालीपन ही पाता
लोग उसकी इसी बात का
भरोसा नहीं करते
हालाँकि अपने-अपने जीवन में
सबका यही अनुभव था
लेकिन इसे सार्वजनिक करने को
कोई तैयार न था
सब चाहते तो थे
कि एक-दूसरे के कंधे पर
अपना माथा रखकर
मिल-जुलकर रोएँ
पर सब अपने-अपने कंधे बचाना चाहते
और आँसू तो क़तई नहीं दिखाना चाहते
सब दुखी थे और ख़ुश थे
वही दुख को दुख की तरह
कहने और नहीं सहने का
साहस कर रहा था
इसलिए हास्यास्पद हो रहा था
यह बात वह समझ रहा था अच्छी तरह
इसलिए वह जिस-तिस से लड़ पड़ता
ग़ैरों से वह शिकायत करता
मगर अपनों के प्रति
उसका ग़ुस्सा ख़ास था
और ख़तरनाक था
और चूँकि वह औरों से हटकर था
इसलिए सब उससे हटकर रहना चाहते
इस बात से वह और दुखी था
जब उससे अपना दुख
देखा नहीं गया
और दूसरों का दुख कीचड़ की तरह
उसके सामने फैला ही रहा
घूम-घूमकर अपने सभी हित मित्रों को
वह प्रणाम कर आया
जिनके जो छोटे-मोटे क़र्ज़ थे
चुका आया
जो नहीं चुका सकता था उसके लिए
माफ़ी माँग आया
और गाँव से बाहर नहर के कछार पर
ज़हर खाकर
छटपटाकर मर गया
वह मर गया तो भोज हुआ
उस भोज में
अपने-पराए
कौए, बिलार, भालू, राक्षस सबने
डकार कर जलेबी-पूरी खाई
एक ब्राह्मण ले गया उसकी बछिया खोलकर!
- रचनाकार : हरे प्रकाश उपाध्याय
- प्रकाशन : हिंदी समय
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