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परित्यक्त बाघिन

parityakt baghin

आरती अबोध

आरती अबोध

परित्यक्त बाघिन

आरती अबोध

मेरी प्रकृति मरुस्थल की थी

जिसका प्रेम किसी ग़ोताख़ोर-सा

जिसे समंदर अज़ीज़ था।

मैं तैरने की ख़्वाहिश से भरी पड़ी थी

तभी मीठे पानी के चश्मे ने

मेरी आत्मा को सोख लिया।

मेरे भीतर एक दरिया उग आया।

मेरे अतीत का मक़बरा

आज भी रह-रहकर अस्पष्ट ध्वनि में कराह उठता है

कि मैंने रूप से नहीं वस्तु से किया था प्रेम।

(अकाट्य सत्य)

प्रेम में पगलाई बाघिन की आँख की कोर पर टिके आँसू से

सृष्टि नष्ट हो सकती थी

इसलिए मैंने उसे खुद ही पी लिया।

(वह बाघिन मैं ही तो थी)

तुम्हें पाने के उन्माद में

मैंने आँखों में मदार डाल लिए

तोड़ दिया जागतिक संसार से प्रत्येक रिश्ता

जो मुझे तुमसे अलगाता था।

(क्योंकि प्रेम एक अस्तित्ववादी अवधारणा है)

प्रेम करती स्त्रियाँ बुद्ध नहीं हुआ करतीं

ही बन पाई कभी कोई कृष्ण ही

स्त्रियों को देवता होना नसीब ही नहीं हुआ!

स्रोत :
  • रचनाकार : आरती अबोध
  • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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