घृणा में डूबा हुआ है सारा देश,
नफ़रतों की आग में सेकी जा रही हैं,
स्वार्थ की रोटियाँ।
किसान खेती छोड़कर,
सड़कों पर बैठकर, नारे बो रहे हैं।
चारों ओर आंदोलनों का ज़ोर है।
हाकिम तंत्र के साथ व्यस्त है,
दमन की योजनाओं में।
पूँजीपतियों के घर नहा रहे हैं,
चमचमाती रौशनी में,
ग़रीब की झोंपड़ी में,अब भी अँधेरा पसरा है।
उसके चूल्हे की बुझी आग...
उसके भूखे पेट में धधक रही है।
स्त्रियाँ अपनी अस्मिता को लेकर,
न्यायलय में खड़ी आपत्ति दर्ज़ कर रहीं हैं…
ईश्वर ने नहीं लिखा उन्हे ब्रेल लिपि में,
कि उनके अस्तित्व को स्वीकारने के लिए,
छूना ज़रूरी है…!
जबकि न्यायालय कहता कि स्त्री को छूना…
नहीं है यौन शौषण,
किसी गैर पुरुष का स्त्री को स्पर्श करना नहीं आता,
अपराध की श्रेणी में।
न्याय व्यवस्था लाचार खड़ी देख रही है,
सुनो! लड़कियों
न्याय के लिए तुम्हें मरना होगा और
मरने के उपरांत इंतज़ार करना होगा,
न्याय पाने के लिए, ठीक निर्भया की तरह!
न्याय के मंदिरों में,
याचकों की भीड़ है,
दुआएँ एकमात्र सहारा हैं,दुआओं का दौर जारी है।
कवि!
लगातार प्रयासरत हैं,
अपनी कविताओं में लोकतंत्र को बचाने के लिए...
वो बयान दे रहे हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता,
लोकतंत्र बचेगा या नहीं,
ये आने वाला समय ही तय करेगा,
राजा को तानाशाही छोड़ न्यायप्रिय होना होगा।
जनता को इस दुस्वप्न से जागना होगा,
कि अच्छे दिन आएँगे…!
तभी लोकतंत्र को बचाया जा सकेगा,
फिलवक्त लोकतंत्र वेंटिलेटर पर है…!
- रचनाकार : अर्पण जमवाल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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