व्यर्थ रात्रि के स्तंभ
उषा में
तैरती मधुशाला में
विशाल आईने के
अकेले पियक्कड़ जहाँ
देखते चेहरे विलीन होते अपने
उठता है सूर्य अपनी अस्थियों के बिस्तर से
हवा नहीं है हवा
बिना बाहों या हाथों के दबोचती
उषा चीर देती परदे
शहर
टूटे हुए शब्दों के ढेर
हवा धूल भरे कोनों में
उड़ा देती काग़ज़
कल की ख़बर
और अधिक दूर
टुकड़ों में पीस दी गई टेबलेट से
भी अधिक
लिपियों में टूटन,
भाषाएँ टुकड़े-टुकड़े
टूटे संकेत,
अग्नि/जल
दो फाट
जला हुआ पानी
कोई केंद्र नहीं
सम्मिलन का चौक
कोई धुरी नहीं
वर्ष तितर-तितर
क्षितिज
उन्होंने लगाई है
मुहर हर दरवाज़े पर
शहर की
हर माथे पर
चिह्न डालर का
हम हैं घिरे हुए
मैं वहाँ पहुँचा हूँ जहाँ से चला था
पाया या खोया।
पूछते तुम
नियम क्या 'सफलता', 'असफलता' के ?
मछुवारों के गीत तैर आते
अचल नदी तट से
झील में केबिन से अपनी
लेकिन मैं चाहता नहीं
एक बौद्धिक आश्रम
सब कुछ है लाभ
अगर खो जाये सब कुछ
लौटता हूँ मैं अपनी ओर
चौक की ओर
आकाश भीतर है
नहीं है यह स्वर्ग
धड़कन या समय की
जगहें सम्मिलन है,
होने की फरफराहट
एक स्वतः स्फूर्त स्पेस
हवा सीटी बजाती है
पेड़ों के ऊपर
झर-झर पानी
लगभग प्रकाश-छायाओं का द्रव
पानी की आवाज़ें
चमकता प्रवाह गुमा हुआ
गठरी प्रतिबिम्बों की
बची हाथों में
चलता हूँ बिना गये हुए आगे
हम कभी न पहुँचते
कभी नहीं वहाँ जहाँ हम है
अतीत नहीं
वर्तमान है स्पर्शातीत।
- पुस्तक : ओक्ताविओ पाज़ की कविताएँ (पृष्ठ 29)
- रचनाकार : ओक्ताविओ पाज़
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2015
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