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वहीं पर नहीं केवल

vahin par nahin keval

आसावरी काकडे

आसावरी काकडे

वहीं पर नहीं केवल

आसावरी काकडे

और अधिकआसावरी काकडे

    वहीं पर नहीं केवल

    यहाँ भीतर भी चलता रहता है

    पूनम-अमावस का

    एक निरंतर आवर्तन

    वहाँ पर तय गति से

    निर्धारित समय पर

    खिलती है चंद्रकलाएँ

    मिटती जाती हैं…

    अबाधित होता है हर हाल में

    पूनम-अमावस का क्रम

    पर यहाँ पर

    कभी भी खिलकर हँसता है पूरनचंद्र

    भीतर ही भीतर उफनता है समुद्र

    और बुझ जाता है यकायक

    फिर पीछे की ओर लौटती हैं

    शांत होती लहरें

    यहाँ के चाँद की

    नहीं होती हैं कलाएँ

    ही निर्धारित दिशाएँ

    उगने की

    ढलने की

    प्रतिपदा… द्वितीया…

    यह वहाँ का क्रम भी

    नहीं समझ में आता है

    बहते भावों की पेशियों को

    होती रहती है भीतर भी पूर्णिमा

    नहीं संभव होता जिन्हें गिनती में रखना

    वहाँ की पूनम के हिसाब से ही

    लोग मनाते हैं ठाठ से

    सहस्रचंद्रदर्शनउत्सव

    भीतर की अमावसों का अपना-अपना अँधेरा

    ख़ामोशी से सहा होता है हर किसी ने

    ज्ञात होता है यह सिर्फ़

    पीछे लौट चुकी लहरों को ही!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सदानीरा
    • संपादक : अविनाश मिश्र
    • रचनाकार : आसावरी काकडे
    • प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका

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