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उलझन

uljhan

नेहा अपराजिता

और अधिकनेहा अपराजिता

    उसने पूछा, यह उलझन क्या होती है?

    मुझे तो हुई कभी, मैंने कहा :

    जब रोते बने

    हँसते

    खाते-पीते

    सोने की कोशिश भी नाकाम हो जाए

    पसीने से माथा तर हो जाए

    तब समझ लेना उलझन में हो।

    जब आँखों से आँसू

    और सिर से बाल बराबर झरें

    गले में भी कुछ अटका रहे

    नज़रों में कुछ खटका रहे

    हल्की-सी आवाज़ से दिल धक्क-सा करे

    तब समझ लेना उलझन में हो।

    कभी मेरी याद आए

    और यह अधिकार हो कि

    तुम मुझ तक अपनी याद पहुँचा सको

    मुझसे बातें कर सको

    माध्यम मिले जब मुझ तक पहुँचने का

    मोबाइल को उठा-उठा कर फिर रख दो

    बार-बार यह लगे कि अभी फ़ोन बीप करेगा

    तब समझ लेना उलझन में हो।

    बस घबराकर चाय या कॉफ़ी पीने चल दो

    घर में इधर-उधर घूम कर कोई काम करो

    कोशिश करो ध्यान कहीं और भटकाने का

    पर हर बार हार जाओ

    किसी से बात करने का मन हो

    किसी की बात सुनने का मन हो

    हर बात पर जब चिड़चिड़ा जाओ

    और अंत में रो-धोकर सो जाओ

    तब समझ लेना उलझन में हो।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नेहा अपराजिता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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