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उखड़े हुए लोग

ukhde hua log

वंदना पराशर

वंदना पराशर

उखड़े हुए लोग

वंदना पराशर

और अधिकवंदना पराशर

    शहर को शहर बनाते हैं

    गाँव से उखड़े हुए

    कुछ लोग

    जिसकी ज़मीं अपनी होती

    आसमान अपना होता

    आधी रोटी खाते

    और आधी ही उम्र जीते

    ये लोग

    उग आते हैं शहर में

    कुकुरमुत्ते की तरह

    गगनचुंबी इमारतें बनाते

    सजाते-सँवारते

    शहर को शहर बनाते

    ये लोग

    अपना ठौर तलाशते

    भटकते रहते हैं

    ख़ानाबदोश की तरह

    शहर की तंग गलियों में

    नमक की तरह

    घुल जाने की इनकी आदत

    शहर की हवा संग

    घुल जाना चाहती है

    किंतु खारा जल समझकर

    शहर ने हमेशा ही

    इसे दरकिनार किया

    गाँव की गंध में लिपटा हुआ तन-मन

    कभी शहर का हो सका

    और ही गाँव का

    ‘गँवार’ का तमग़ा लटकाए

    डोलते रहते हैं

    शहर की तंग गलियों में

    रोटी की तलाश में।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वंदना पराशर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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