देर से समझ आया कि असल सुख
मेधा की चैतन्यता में था
और हम उबटन तेल फुलेल से चेहरा चमकाने में
आनंद ढूँढ़ते रहे
जब कि हम दोनों जानते थे कि
देह की सुंदरता और जीवन में कोई अंतर्संबंध नहीं है
तुम जाने कितनी बार कितनी तरह से गर्वोन्मत होकर
हुँकारी भरवाते कि लावण्यमयी स्त्री-पुरुषों को शोभती है
और हम हर बार ग्लानि से भर जाते कि
औरतें जन्मना इतनी कमतर हैं कि
वे आड़े-बेड़े किसी भी आदमी पर
रीझने के लिए ही जन्मी हैं
परंपराओं के अहर्निश ताप से देह झुलसती तो भी
हम व्यस्त दिनचर्या में ठहरकर
टीवी पर पसंदीदा धारावाहिक देखना नहीं भूलते
जब नायक नायिका के सामने प्रेम-प्रस्ताव रखता
हमारे मन हुलसने लगते
और फिर थोड़ी ही देर बाद हम गहरी चिंता में डूब जाते
कि कब तक हमारे बुझे मन उधार की रोशनी में उजाला तलाशेंगे
इधर हम दृश्य-अदृश्य के सवालों के उलझे गोले सुलझा रहे थे
उधर स्त्रीवाद संसार के विरुद्ध जाकर हमारे हक़ की लड़ाई लड़ रहा था
और हम इतने सयाने थे कि उनसे ही जिरह कर रहे थे
संध्या बैठकों में आदमियों का समूह ग्लास में बर्फ़ डालते हुए
अपने-अपने वर्चस्व के क़िस्से सुना रहा था
इधर सोशल मीडिया पर उनकी पत्नियों का
गल्प वीडियो वायरल हो चुका था
और उनकी सहेलियों का बड़ा ख़ेमा उस पर
चुटकियाँ लेते हुए हँस रहा था
कि मानो ये उनके जीवन की सच्ची घटना पर आधारित
कोई दृश्य हो
दुनिया में बाज़ार इस क़दर घुस आया था कि
उसने महीनों और उत्सवों के रंग नियत करने का
नया चलन शुरू कर दिया था
अब औरतें अपने साथी की विचारों से नहीं
कपड़ों से ट्यूनिंग मिलाने लगी थीं
वैचारिकता की धुंध जितना छँटती थी
बाज़ार का रूमान उतना ही तेज़ी से चढ़ता जाता था
औरतें जो रोज़ मर-मरकर जीने की ख़ूब भली
अदाकारी करना जानती थीं
चल पड़ी थी उसी पथ पर
जहाँ से काँटे चुनते हुए हमारे पाँवों में छाले पड़े थे
- रचनाकार : शालिनी सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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