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तुम और मैं

tum aur main

स्वाति मेलकानी

स्वाति मेलकानी

तुम और मैं

स्वाति मेलकानी

और अधिकस्वाति मेलकानी

    तुम एक विशाल आकाश हो

    बड़े से बड़े

    ग्रह और नक्षत्र भी

    तुम में समाकर

    ओझल हो जाते हैं

    इसीलिए शायद

    तुम रह पाते हो

    तटस्थ

    निष्पक्ष

    और अक्षुण्ण...

    पर मैं,

    निरंतर

    अपने ही पैरों तले

    पाताल की विभीषिका को

    उद्घाटित करती

    वह गतिशील धरती हूँ

    जिसमें समाकर

    सूक्ष्मतम बीज भी

    अपनी जड़ें जमा लेता है

    मुझमें कुछ नहीं खोता

    मैं एकत्र करती हूँ

    स्वयं के भीतर

    उन सुप्त खदानों

    और मूक झरनों को

    जो समय-असमय

    तुम्हारे द्वारा

    खोज लिए जाने को

    प्रस्तुत रहते हैं।

    इसीलिए

    मैं पक्षधर हूँ

    जीवन की

    सुख और दुःख की

    हर्ष और विषाद की

    मैं

    तुम्हारी तरह

    निर्लिप्त रहकर

    विजयी मुस्कान धारण नहीं कर सकती

    मुझे

    प्रेम और विरह

    दोनों पर मान है

    मैं भी जीवित हूँ वर्तमान में

    किंतु मुझमें

    भूत अब तक प्राणवान है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : स्वाति मेलकानी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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