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आशा बलवती है राजन्

aasha balawti hai rajan

नंद चतुर्वेदी

नंद चतुर्वेदी

आशा बलवती है राजन्

नंद चतुर्वेदी

और अधिकनंद चतुर्वेदी

     

    आत्मा नदी, संयम पुण्य-तीर्थ, सत्योदकं, शील तटो, दर्योमी।
    तत्राभिषेकम् कुरु पांडु पुत्र, न च वारिणाम शुद्धयं चांतरात्मा॥ 

    — महाभारत  

    आत्म की नदी सूख गई है
    संयम के पुण्य गिर गए हं
    सत्य का जल रसातल में चला गया है
    धँस गए हैं शील के तट पृथ्वी में
    दया की लहरें कहाँ चली गईं
    कोई नहीं जानता
    अब पांडुपुत्र को गली के हैंडपंप पर
    स्नान करने पड़ेंगे
    यही जल है जैसा भी है
    आत्मा की शुद्धि के लिए

    यह ऐसा समय है मूर्च्छित, स्वार्थ-लिप्त
    वह पुस्तक प्रतिबंधित कर दी गई है
    जिससे तुमने वह पाठ पढ़ा था
    सत्यम् वद धर्मम् चर
    धर्म के अखाड़ेबाज़ पहलवान
    हाथ में गँड़ासे लिए खड़े हैं अटल

    सत्य के आगे का पाठ तुमने नहीं पढ़ा
    राजकुल के सबसे ज्येष्ठ कुमार होकर भी नहीं
    वहीं ठिठके रहे
    दिनों तक कुल-गुरु द्रोणाचार्य को
    लज्जा आती रही
    सत्य का इस तरह पाठ पढ़ने वाले हमेशा से
    अनादर की ढलानों पर खड़े हैं
    हम सबको वे घिसटते लगते हैं
    परम मूर्खता के दलदल में

    कृष्ण ने तुमसे कहा था
    गहरे संशय कुछ अविश्वास के साथ
    कुछ आत्म-ग्लानि के साथ भी
    कहो, युधिष्ठिर, कहो
    द्रोणाचार्य की पाठशाला में नहीं कह पाए थे
    अभी काहे आगे के पाठ का वह छल
    विजय का नशा, मेरीजुइना, जेनोसाइड
    सबके साथ मारा गया अश्वत्थामा
    तुमने कहा ‘नरो वा कुंजरोवा’
    आधा पुण्य, आधा युधिष्ठिर वहीं मारा गया
    भाषा-छल, क्लांत, रक्त-स्नात

    ‘कुंजरोवा’ कहा भी था या नहीं तुमने
    या लेखक, कवि वेद व्यास ने ही सुना
    उस दिन भी उन्होंने ही सुना हो कदाचित्
    जिस दिन अस्फ़ुट-से स्वर में कहा था तुमने
    ‘सत्यम् वद धर्मम् चर’
    लेखक कवि ही सुनते हों
    त्रिकाल का
    रुद्ध, उद्विग्न, विकल स्वर ‘सत्यम् वद्’
    उसी ने एक बार फिर सुना
    तुम्हारे पक्ष का स्वर
    वह मर्माहत, अस्फ़ुट-सा, संशयग्रस्त स्वर

    हताश कृष्ण ने फिर कहा तुमसे
    कहो, युधिष्ठिर, कहो ‘मारा गया अश्वत्थामा’
    तुमने ऊर्जस्वित स्वर में तब कहा ‘मारा गया अश्वत्थामा’
    काँपते, त्रस्त स्वर में ‘कुंजरो वा’
    जिसे द्रोणाचार्य ने नहीं सुना

    (महाभारत में जाने-अनजाने
    भोले भाव या चतुराई से
    इच्छा या अनिच्छा से
    कहा गया
    तुम्हारा वह कपट वाक्य दर्ज है)

    फिर क्या बचा था
    आधे-अधूरे ही तुम बचे थे
    उस आधे सत्य के व्याकुल छलावे के साथ
    तुम उन हिम-शिखरों में गलने
    विलीन होने चले गए

    महाभारत के उस प्राणहंता कथानक का
    क्या अंत हो सकता था
    कृष्ण किसी स्वकुल के अपरिचित
    व्याध के बाण से मारे गए
    वे जो चराचर के सखा थे

    सत्य अब वस्तुओं, विज्ञापनों के
    बाज़ार में बिकता है
    आत्मा की जल वाली नदी
    दुर्दिनों की रेत में विलुप्त हो गई है

    आशा बलवती है राजन्!

    स्रोत :
    • रचनाकार : नंद चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अनुराग चतुर्वेदी द्वारा चयनित

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