एक
उठो कि अपने अँधेरे के ख़िलाफ़ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साज़िश के ख़िलाफ़
उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो
जैसे तूफ़ान से बवंडर उठता है
उठती है जैसी राख में दबी चिनगारी
देखो! अपनी बस्ती के सीमांत पर
जहाँ धराशायी हो रहे हैं पेड़
कुल्हाड़ियों के सामने असहाय
रोज़ नंगी होती बस्तियाँ
एक रोज़ माँगेंगी तुमसे
तुम्हारी ख़ामोशी का जवाब
सोचा—
तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते हैं
तुम्हारा मुँह चिढ़ाते तुम्हारी ही बस्ती की दुकानों पर
कैसा लगता है तुम्हें जब
तुम्हारी ही चीज़ें
तुम्हारी पहुँच से दूर होती दिखती हैं?
दो
इन सदियों का क्या है
आएँगी... जाएँगी...
क्या अब भी विश्वास करने लायक़ बचा है यह समय?
तुम्हारे विश्वास की जड़ें आख़िर कितनी गहरी हैं
समय के द्वारा लगातार कुतरे जाने के बावजूद?
क्या वे पाताल में गई हैं...?
जबकि तुम्हारे हिस्से में
भूख और थकान के सिवा
सिवा एक बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद के
शायद कुछ भी नहीं है...
विडंबना ही है—
कि ईश्वर पर सबसे ज़्यादा कैसे करती हो विश्वास...?
तीन
वे दबे-पाँव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में
वे तुम्हारे नृत्य की बड़ाई करते हैं
वे तुम्हारी आँखों की प्रशंसा में क़सीदे पढ़ते हैं
वे कौन हैं...?
सौदागर हैं वे... समझो...
पहचानो उन्हें बिटिया मुर्मू... पहचानो!
पहाड़ों पर आग वे ही लगाते हैं
उन्हीं की दुकानों पर तुम्हारे बच्चों का
बचपन चीत्कारता है
उन्हीं की गाड़ियों पर
तुम्हारी लड़कियाँ सब्ज़बाग़ देखने
कलकत्ता और नेपाल के बाज़ारों में उतरती हैं
नगाड़े की आवाज़ें
कितनी असमर्थ बना दी गई हैं
जाने उसे...!
- पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 14)
- रचनाकार : निर्मला पुतुल
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2005
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.