मलयगिरि का प्रेत

malaygiri ka pret

सुशोभित

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मलयगिरि का प्रेत

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    यह जीवन तो इतने 'शोक' में कटा!

    होने के संताप में।

    वेश के क्लेश में।

    अगले जनम जो अवसर मिले तो बनूँगा 'अशोक' का वृक्ष।

    कि एक 'अशोक' ही है, जिसे कोई शोक नहीं।

    अगले जनम में बनूँगा 'अशोक' का वृक्ष अनाम!

    अगले कल्प में योग बना तो कहलाऊँगा 'तमाल' वृक्ष।

    किसी रक्तपर्णा 'शाल्मली' के समीप खड़ा रहूँगा छतनार,

    अभिसार को फैलाए टहनियों की बाँहें।

    कि मैं बनूँगा 'कल्पद्रुम' और तुहिनमाला का कंठहार पहनूँगा!

    या बनूँगा ब्रज का 'कदंब', कविवर बाण ने जिसके नाम पर

    पुकारा था अपनी नायिका को 'कादंबरी'!

    या पर्वतों के कंधे पर चढ़कर 'पर्जन्य' को पुकारूँगा :

    कभी चीड़, कभी देवदार, कभी शालवृक्ष का वेश धरकर!

    बुद्ध ने 'जातक' उपदेशों में स्‍वयं को कहा है 'वृक्षदेवता'।

    जैसे 'भगवद्गीता' में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था : अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्।

    मैं कृष्ण का 'अश्वत्थ' बनूँगा।

    बुद्ध का 'न्यग्रोध'।

    बरगद और गूलर की भाँति 'गुह्यपुष्पक'।

    पितरों का 'पीपल', जिसे सिंधु सभ्यता के अज्ञातकुलशील भी

    वैसे ही पूजते थे, जैसे गंगातट के आर्य वंशज।

    मैं बनूँगा 'मौलश्री', मैं बनूँगा 'कोविदार'।

    'कंटद्रुम' ही सही, आषाढ़ की वर्षा में करूँगा

    भोर का नहान!

    पतझड़ में जैसे पर्ण का परित्याग करते हैं 'सागौन',

    मैं त्याग दूँगा अपना यह नाम।

    कि इस 'नामसंज्ञा' पर इतने संबोधनों के सूत्र हैं,

    जितने कभी हो नहीं सकते किसी पीपल पर धागे!

    मैं साँची का 'शिरीष' वृक्ष बनूँगा,

    जिसके भीतर विराजे हैं बोधिसत्‍व कृकुच्‍छंद।

    या बनूँगा 'अरिष्ट' का वह वृक्ष,

    'महाभारत' के आख्यान ने जिसे अभिहित तो किया,

    किंतु कोई जानता नहीं कौन पेड़ था वह।

    'सप्तपर्ण' का पेड़ बनूँगा छितवन,

    किसी पथिक को दूँगा छाँह,

    उसकी निष्कलुष निद्रा को निहारूँगा।

    मैं बनूँगा मलयगिरि का प्रेत!

    मैं बनूँगा नीलगिरि का वनदेवता।

    मैं बनूँगा कृष्ण का 'वंशीवन'।

    बुद्ध का 'वेणुवन'।

    सारनाथ का 'मृगदाव', जहाँ पर्णपात का शब्द ही

    हरिण का पाश!

    और 'जेतवन' के दावानल में समिधा की तरह

    देखूँगा अपना दाह!

    'बाँस' के पत्तों-सा बनूँगा विनयी।

    'पलाश' के फूल-सा उदग्र।

    'मलयज'-सा विकल।

    'पारिजात'-सा स्नेही।

    'बिल्व'-सा विगलित!

    मुर्श‍िदाबाद की मुखर्जीबाड़ी में बनूँगा

    'कटहल' का रूख

    या गांगुलीबाड़ी के आम्रकुंज में

    मालदह का गाछ!

    कि अब यह वेश नहीं धारूँगा।

    कि यह नाम नहीं उचारूँगा!

    कितना तो क्लांत करता है यों मनुज होकर जीना!

    मैं शमी का वृक्ष बनूँगा या शीशम।

    बरगद या अमलतास।

    किंतु मनुज बनूँगा!

    चलता रहा हूँ अब रुकूँगा।

    थकता गया हूँ अब थमूँगा।

    तीन दोष, छह राग, बारह बखेड़े :

    मनुज होकर यही तो साधा!

    मरणपर्यंत धरूँगा मौन।

    पाखियों का बनूँगा साखी!

    वानस्पतिक समर्पणता का

    कहलाऊँगा 'वृक्ष-विग्रह'।

    नगर के सीमांत पर बन जाऊँगा

    नीम का एक पेड़, जो प्रलय से पहले

    और एक जीवन पाया!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुशोभित
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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