चिरनव
पास से गुज़रते अक्सर
कभी दूर से बाँहें फैला कर
रोक लेता आम का वह पेड़ पुराना
हर बार
मिलता हूँ मैं उसे
जैसे पहली बार...
घाम
कबके तपे हुए हैं ये
पहली बारिश के बाद ही
भरेगा इनमें रस
बूँदों से तरेगी मिठास
उस पर भी
सुबह भिगोकर रखना
तो हाथ लगाना शाम
नहीं तो लग जाएगा भीतर का घाम...
फल
इतने ऊँचे क़द वाले वृक्ष
और फल
इतने ज़रा से इतने विरल
और ये छोटे गाछ भूमि से लगे
फल जिनके हाथों को चूमते
लदराए गदराए झमाट...
दाय
मिट्टी ने उगाया
हवा ने झुलाया
धूप ने पकाया
बौछारों ने भरा रस
नहीं सब नहीं तुम्हारा
सब मत तोड़ो
छोड़ दो कुछ फल पेड़ पर
पंछियों के लिए
पंथियों के लिए...
भाग
बौर तो आए लदरा कर
पर आधे टूट गए आँधियों में
तब भी निकले
काफ़ी टिकोले
रोकते बचाते निशाने चढ़ गए कई
ढेलों-गुलेलों के
जो बचे कुछ बढ़े
पकने से पहले
मोल कर गए व्यापारी
मैं इस पेड़ का जोगवार
मेरे लिए बस
गिलहरियों का जुठाया
चिड़ियों का गिराया
उपहार...
परिपाक
भूसे वाले घर में
लगा रहता चित्त
गोड़ कर जहाँ रखते
पकने के लिए
सपनों की तरह नींद में टूटे आम
और एक दिन वहीं
तुम पकड़ी गई
रँगे हाथों
पगे होंठ
रस
तो उतर चुका था भीतर
बस
मैंने पोंछ दिया
लस
होंठों पर लगा...
इतना-सा
कोर तक भरे कलश में तुम्हारे
आम का पल्लव
पहला प्यार
इतना-सा अमृत जो लेता
और उसी को फैला देता
चारों ओर
भरा का भरा
रहता कलश तुम्हारा...
हक़
जानता हूँ
पहले पहल उभरेगा तिरस्कार
कबकी जमी तिक्तता हृदय की
चोप की तरह
तब फूटेगी मधुरता की धार
अलग मत करो
पहले दूध की तरह
हक़ लेने दो
चख लेने दो
छक लेने दो
इसे भी...
ठिठोली
छुप-छुपाकर स्वाद लगाया
पर मुँह चिढ़ाता
यह अपरस उभर आया
मुँहज़ोर सखियों को
अच्छा मिल गया बहाना ठिठोली का
जैसे जागे हुए को उठाना
कितना कठिन समझाना
उसे जो जानता है
अब कहती हो
तो लेता मान
यह आम का ही निशान!
रह-रह कर रस ले
वह निठुर भी...
बेहद
एक तो माटी की
छोटी कोठरी
दूसरे जेठ की
पकाती गरमी
तिस पर नई-नई शादी
और उसके साथ
खाट के नीचे
किसने रखा डाल
आमों का यह पाल...
गति
सही-सलामत
चपल तत्पर अपने पाँव
फिर भी
हम कहीं नहीं
वहीं के वहीं
वही धूप वही छाँव
और यह जो
कहलाने को लँगड़ा
दुनिया भर में
पूछा जाता कहाँ-कहाँ...
सुध
मिठुआ, मिरचई, तोतापरी,
गुलाबख़ास, हिमसागर, दशहरी
सोचते
उभर आते एकदम से
बिल्कुल अपने
उनके रंग-रूप-आस्वाद
क्या ऐसा होगा एक दिन
नामों समेत हम उन्हें भूल जाएँगे
और फिर अचानक कौंधेगी किसी की याद
तो लेबल के पीछे से झाँकेगा
कोई अचीन्हा स्वाद...
हासिल
हाथ लगे कितने ही हासिल
पर इससे पहले
कि लूँ जीवन में
और उपलब्धियों के नाम
स्मरण आएगा
मैदान जाते एक शाम
घास में छुपा अनायास
मिला था जो
ललछौंह आम...
प्रथम स्मरण
बहुत भरा
चढ़कर उतरा
रस जीवन में
पर नहीं भूले
दाँत कोठ करने वाले
कुछ नन्हे टिकोले...
बदलाव
आकाश का रंग देखते अब
बच्चों को पुकारते
बंद करते उनके साथ
दरवाजे खिड़कियाँ
याद आता
उम्र का वह पहर
जब आँधियों का नहीं था डर
बल्कि कहीं उनका इंतज़ार
रात या दिन किसी घड़ी
हुई ख़बर
कि हम देहरी पार
आम चुनने को फ़रार...
आगार
फल तो फल अलग रंग-रेशों के
फिर वो चटनी, गुरमा, कूचे, अचार,
अमावट, अमझोर, आमपना, अमचूर...
प्यार के सिवा
और कहाँ
आस्वाद का ऐसा विपुल आगार...
रोनी हँसी
जीवन ने कर दिया अधमरा
अपना तो निकल गया
कचूमर...
विलाप के बीच
विहँस पड़ता
ध्यान कर
किस तरह आया
आज आम ज़बान पर...
जीवन-फल
चोट खाया फल यह
वक़्त के झोंके से
हालात के झटके से
डाल से गिरा टूटकर
सख़्त ज़मीन पर
अमरित एक ओर
दूसरी तरफ खट्टा चूख
छोड़ो मत फेंको मत
मानो भाग्य सफल
मिले जो यह जीवन फल...
माँ बोली
आम को
कोई नाम दे दो
वह लगेगा मीठा
पर अपनी भाषा में
कुछ और अलग अनूठा
आम आम
रटता कोई बच्चा
तो लगता
माऽ... माऽऽ...
पुकार रहा
अकारथ
ये सारे
पेड़ मेरे
यह पूरा बाग़ान
मैं ही इसका
सींचने वाला
जोगने वाला
फल भी सब मेरे
इस बार तो और झौंर कर आए
पर अकेले का
क्या आनंद
कैसा आस्वाद
साझा किससे करूँ
किससे लड़ूँ-भिड़ूँ
कोई तो हो
करने को हिस्सेदारी
भले अच्छे
ख़ुद रख ले
कच्चे खट्टे मौराए
छोड़ दे मेरे लिए...
मनमान
प्यार
इंतज़ार
मन से उसके
चलना
वार से
तोड़कर
डार से
उतारना मत
अपने तक आप
आने देना
कुछ अलग ही होता
पेड़ पर पके आम का
आस्वाद...
स्वभाव
अनूठा
यह पेड़ मिठुआ
काँचा
ही
फल इसका
साँचा
पीला होकर
हो जाता
सपनीला
पक कर
तर जाता
चित्त से
उतर जाता...
साधना
पहुँचे सिद्ध
योगी धुनी
कुछ खाते-पीते नहीं
रामरस
के सिवा
चहिए बस
आमरस...
अंतस
रस तलाशते
निंदक अक्सर
होते मायूस
रह जाते
लेकर मुँह अपना
पोपला-सा
मगर कवि को क्या है कि
बचपन सेआँ
पसंद ठी
रीढ़ ढूँढ़ता रहता वह
कविताओं में भी...
कुनबा
काले चींटे
तो सब जगह दिख जाते
पर आम्रवृक्ष के नीचे ही
मिलते मट्टे लाल
और भनक लगते
खुलते आम के
चली आती
जाने कहाँ से मगर कहीं से
स्वर्णमुखी वह बड़ी मक्खी
जो ऐसे किधर नज़र आती
मैं तो मानता
तुम भी मानोगे
कि आम सच में है ख़ास...
सादृश्य
अच्छे लगते हैं
वे आदमी वे आम
ऊपर से जो हरे
धुले पत्ते सरीखे
या धूसर रंगत लिए
और भीतर रत-रत लाल
आम आदमी जैसे
आदमी आम सरीखे...
अंततोगत्वा
फल का विकास
फल का परिष्कार
अब के हिसाब से कहें तो
फल की सफलता
कि गुठली उसकी
छोटी कितनी
मामला यह बहुत कुछ
सभ्यता के विकास जैसा
इसका शिखर यह हो सकता
कि गुठली का चले ही न पता
वह चरमोत्कर्ष
जहाँ से होती
अंत की शुरुआत...
अगलगी
महानगर के
किसी फुटपाथ के
एक किनारे
लगे ठेले पर
पीता हूँ आमपना
आम पाना कहेंगे इसे
या आम का खोना...?
ताप
पात झड़ गए,
पेड़ उखड़ गए
पीछे छूट गया कहीं गाँव
और इन बच्चों को तो
छूने को भी
नहीं मिलते आम
फिर भी हर मौसम में
बन-बनाकर निकलते
आमाँ वाले वे घाव...
जुटान
सुबह हो गई
अब चाहिए शाम की लकड़ी
चंदन नहीं
अपना ईंधन
जाओ लेकर आओ
सूखे पत्ते आम के
आम की लकड़ी
नहीं तो जलेगी नहीं
सुलगती धुँधुआती रहेगी
यह हाड़ चाम की ठठरी...
जीवन रुत
कच्चापन
है बचपन
यौवन
पकना
और कोई फल चाहता नहीं
कि देखे बुढ़ापा...
लालसा
पेड़ यह आधा बाहर
आधा भीतर
एक फल गिरा दिखता
अहाते में
पाँव दबाए धीरे से
खोलता फाटक
जाकर अंदर
उठाता
कहीं का नहीं
छोड़ेगी किसी दिन
आम की यह लालसा...
आद्यंत
कोई फल इस तरह का
पहले या बाद
नहीं जिसमें कोई स्वाद
कोई
आरंभ में अनमन
पर पक कर धीरे-धीरे
होता जाता मीठा
बिरले ही ऐसे
जो रस और मिठास
दोनों रख पाते सँजो कर
शुरू से आख़िर तक...
अचूक
तान कर चलाई गुलेल नीचे से
और पहले प्रयास में
आ गिरा ऊपर से फल
दंग होकर देखते
देखने वाले
अब यह तो
साधने वाला ही जाने
कि है या नहीं
यह फल वही
जिसके लिए साधा था निशाना...
बनक
गबरू जवान गाँव का
कसी गठी काठी
कैसे बनी
पूछो तो
हँसेगा
कहेगा :
चूस-चूसकर
बनैले आम की आँठी...
मायानगरी
ये ही तो हैं
राजा आज के
चलते चलते ऐसे ही
देख रहा किसी की
वैभवनगरी
नगर में घाटी
घाटी के बीच निजी नगर
सब कुछ है पर उससे क्या
यहाँ से वहाँ तक नहीं दिखता
पेड़ एक आम का...
शुभकामना
बड़ा हूँ थोड़ा
तो झुक कर पाँव वह छूती
फूलो फलो
चाहता कहना
पर रुक जाता
आमों से इतना है प्रेम
फिर अमराई में ही हम पहले-पहल मिले
और आमों में फूल नहीं बौर होते
तो क्या इसे
थोड़ा बदलकर ऐसा नहीं कह सकता :
कि जाओ
बौराओ
गदराओ
लदराओ...!
संग
क्या चखा आम
रस अगर उसका
पहरावे में न लगा
या तो बच्चों की तरह
लो आनंद
नंग-निहंग
याद रहे लेकिन
रस फिर वह
लगा जाएगा आत्मा के संग
रंगछाया
दो फलों का
मिलाप यह कैसा!
एक पर उतर आई
छाया दूसरे की
पूरा पक कर
मुख इस आम का
हो चला है जामुनी
जैसे किसी
गर्भिणी
की छाती...
अहरह
रोयों की सिहरन
तो देखी है
सुनी सीने की धड़कन भी
मगर दो दहके होंठों को
बढ़ते देख अपनी ओर
इस फल की काया में
रस कैसे भरने लगता कुलाँचें
और भीतर गुठली तक
जाग उठते रेशे...!
सत्यापन
आम के पेड़ पर बैठा जो पंछी
ज़रूरी नहीं
हो कोयल ही
जैसे कोयल के बोलने से
नहीं हो जाता
कोई पेड़ आम का...
मान
मानपत्र
इस जीवन का
नहीं हो सकता
कोई भोजपत्र
कोई ताम्रपत्र
दे दो मुझे
केवल एक किसलय
एक आम्रपत्र...
ज़िम्मा
ज़िंदगी
चखो तुम्हीं
हक़ लगाओ
लो आस्वाद
मुझे बस दे दो
जब-तब पूछने का
रसभीने अपने होंठों को
होंठों से पोंछने का
अपवाद...
अंतर
राजा थे
हम भी अपने
मन के
अपने मैदान के
यहाँ बाहर
शहर में आकर
हो गए दरिद्र
आप में
हममें
यही फ़र्क़ है
कि आप
आम खाते हैं
और हमें
सपने में
आम आते हैं...
जीवन-ऋण
बिना दाँत के
बूढ़े मसूढ़े
रँग गए
पग गए
कैसे?
मड़ई के आगे
मगनमन बैठी
आम चूस रही
बूढ़ी माई
परलोक में आस्वाद ये
कहाँ मिलेगा जाने...!
नज़र
सँभालकर रखो
आमों के ये कुंज
गंध अमराई की
पंछी ही नहीं
पंख लगाकर
देवता आएँगे
इनके लिए
इस धरती पर
पर्यटक बनकर
कोई रूप धरकर...
इस दौर में
किसको सब्र है
कि शाख पर पकने दे
इस फल को
इस पल को...
यह समय
अजब फल था
ऊपर से हरा
अंदर सड़ा
कैसा ज़माना आ गया राम
ऐसा आम!
खाट पर पड़ी
बूढ़ी दादी ने ली करवट
जी सिहरा!
क्या भर चला
इस युग का घड़ा...?
अंतर्दृष्टि
सब तो
ऊपर का
देखते
रंग-रूप
रस-मांसलता
अंदर कौन झाँकता
आदमी
आम होता
तो गुठली का
दाम होता!
दुआ-सलाम
चला जा रहा था
सिर पर टोकरा
उठाए बूढ़ा
ऐ आमऽ!
दी आवाज़
गली के छोकरों ने
राम राम!
टोकरे से उमग कर
बोले आम...
इंतज़ार
गए साल
फलों से भरी थी हर डाल
इस बार अंतराल
ख़ाली-ख़ाली पेड़
कोई बात नहीं
अगले साल
झूमकर आएँगे
आम आते हैं
पर आने से पहले
सब्र सिखलाते हैं...
बुलाना
कभी नाम लेकर,
नहीं पुकारा
कोई आम खाएगा क्या?
अरे देखो उठी आँधी
चलें सब बाग़ीचे...
इसी तरह
किया इशारा
संज्ञा होने से पहले
प्यार सर्वनाम था...!
उत्स
तुम्हारे जितना ही प्रेम है,
मुझे आमों से
पर कभी इसका
तुमने बुरा नहीं माना
है पता
कि प्यार हमारा
हमें इसी अमराई से मिला...
आदिमराग
आदिम है यह कविता
उतनी ही
जितना आदमी
जितने आम
और जितना उन दोनों में
छुपा प्रेम
उसका रस
उसकी मिठास...!
संज्ञा
आम के पेड़ पर
एक नाम है
जो तुम्हें नहीं जानते
इसे इस आम का
नाम समझेंगे...
राग अमोला
दरबार में रहकर
रच डाला राग दरबारी उस्तादों ने
क्या खाकर आम दशहरी
राग दशहरी नहीं रच सकता था कोई
या अमराई में जाकर
राग अमोला?
अनुपम राग होता वह तय है
इस प्रश्न में भी देखो कैसी लय है...
मन बौराना
इस धरती के किसी कोने
होगा इसके बिना
वास ना
एक फल के पीछे किस क़दर बौरायी
मनुजसुलभ अपनी
वासना...
पुनश्च
किसी कोटर में
भूल गया जिसे रखकर
फिर से जन्मूँगा
इस मिट्टी में
फिर से सनूँगा
उस अमरफल के लिए...
सिरा
खाकर फल
यूँ ही
उछाल दी
जो गुठली
क्या पता
सब ख़त्म हाने के बाद
उसी से बसे
दुनिया अगली...
- रचनाकार : प्रेम रंजन अनिमेष
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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