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नूरजहाँ

nurajhan

चाहत अन्वी

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नूरजहाँ

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और अधिकचाहत अन्वी

    लोग कहते हैं बाघिन-सी घाघ है नूरजहाँ!

    मुझे हावड़ा-कालका मेल के जेनरल डिब्बे में

    अक्सर मिल जाती है

    जहाँ सबके लिए साँस लेना भी मुश्किल है

    वहाँ मर्दों के बीच आँधी बनकर पहुँचती है नूरजहाँ!

    वह सौंदर्य प्रसाधनों से अपनी उम्र छुपाने की

    कोशिश तो करती है पर

    त्वचा की महीन रेखाओं से ताक-झाँक करते

    दु:खों को छुपाने के लिए क्या उपाय करे

    नहीं जानती है नूरजहाँ

    नूरजहाँ पारखी कारीगर है वह अपनी साड़ी पर

    सितारों के साथ-साथ दुखों की तुरपाई हँसती हुई कर सकती है

    वह हँसती है तो हवाड़ा-कालका मेल की पटरियाँ हँसती हैं

    पहियों को दौड़ते देखकर खेतों के मेड़ हँसते हैं

    माँ की चोंच में अनाज देखकर उनके बच्चें हँसते हैं

    और अपनी बेटी को चिड़िया कहने वाले मज़दूर हँसते हैं

    डिब्बे की शिकारी आँखों से छुपा-छुपी खेलती हुई

    कलाई के जादू का खेल दिखाकर मर्दों को चुनौती देती है

    औरतों की हिकारत को भी जानती है नूरजहाँ

    जिस दिन नूरजहाँ को मर्द और औरत होने से

    अलग महसूस कराया गया था

    उस दिन उसे बादल अच्छे लगे थे बारिश

    फिर तो उसकी उम्र को रेल की पटरियों पर धकेल दिया गया

    वह जानती है मेरे सवालों को

    मुझसे बचती हुई हड़बड़ी में निकल जाती है नूरजहाँ

    उसे गढ़ने से पहले कुम्हारों ने उससे कम संवाद किया

    पर संवाद में माहिर है नूरजहाँ

    नूरजहाँ अब कहती है—

    ‘चल दे…दे ना…

    निकाल राजा पैसे...

    क्या रे तू हिजड़े से गाली सुनेगा?

    क्या नहीं है पैसे?

    कमाने जा रहा है पंजाब

    पैसे नहीं हैं? तो इतने बच्चों की खेती क्यों किया रे

    चल-चल पचास नहीं तो बीस निकाल

    अच्छा चल दस ही दे’

    लोगों के ग़ुरूर को ट्रेन में बार-बार चुनौती देती हुई

    दिल जीतने का हुनर भी जानती हैं नूरजहाँ

    नूर जानती है कि पूरी दुनिया में उसका कहीं कोई शाह नहीं है

    पर सबकी आँखों में अपने लिए ताज़ बनाती हैं नूरजहाँ

    मैं उससे पूछती हूँ कि जब हावड़ा-कालका मेल ‘नेताजी एक्सप्रेस में बदल चुकी है

    कल ये जेनरल डिब्बे भी बदल दिए जाएँगे

    और जब ये डिब्बे नहीं बचेंगे तो तुम कहाँ जाओगी?

    नूरजहाँ कहती है

    कि जब तक हावड़ा-कालका मेल में जेनरल डिब्बे बचे रहेंगे

    ये दुनिया बची रहेगी

    इस दुनिया को विशेष नहीं सामान्य होने से ही बचाया जा सकता है

    मैं चुपचाप देख रही हूँ

    हावड़ा-कालका मेल की पटरियों पर

    नूरजहाँ और मज़दूरों की ज़िंदगी धीरे-धीरे चल रही है

    हावड़ा–कालका मेल अगर आगरा से गुज़रती तो भी मैं उसे

    इतिहास में दर्ज़ सुल्तान और उसके दरबारियों के क़िस्से कभी नहीं सुनाती

    अपने इतिहास से बेदखल

    सुल्तानों के किस्सों का क्या करेगी नूरजहाँ?

    हावड़ा–कालका मेल पटरी पर दौड़ रही है

    और लोहे के घर्षण से उठती चिंगारी

    नूरजहाँ की तालियों की आवाज़ में गुम हो रही है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : चाहत अन्वी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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