है दर्द दिया में बाती का जलना
hai dard diya mein bati ka jalna
तुम रुककर राय न दे डालो साथी,
कुछ दूर अभी आगे तुमको चलना
एक
तुम आज उमर के फूल चढ़ाते हो
तुम समझे हो, ज़िंदगी बढ़ाते हो
तुम पर जो ये धूलें चढ़ती जातीं
तुम समझे हो, लहरें बढ़ती आतीं
तुम समझे हो, मिल गई तुम्हें मंज़िल
वह तो हर रोज़ यहाँ दिन का ढलना
दो
पूनो के बाद अमावस आएगी
उजियाली पर अँधियारी छाएगी
फिर गुल की बुलबुल चुप हो जाएगी
इस बार खार की कोयल गाएगी
सुख दिन है, दुख है रात घनी काली
है दर्द दिया में बाती का जलना
तीन
तुम क्षुब्ध रहे अंधड़-तूफ़ानों से
तुम मुग्ध रहे बुलबुल के गानों से
तुम क्या जानो, यह दुनिया सोती है
उसकी समाधि पर बुलबुल रोती है
तुमने कुछ छल देखे न छली देखा,
तुम देख रहे केवल कलना-छलना
मिलने वाला ही मिला नहीं जग में
तुम खोज चले झिलमिल में, जगमग में
यह चंद्र-किरण घन-जालों में उलझी
इनकी उनकी किनकी क़िस्मत सुलझी
है क्या जिसको तुम उमर बताते हो
कुछ गई घड़ी, कुछ घड़ियों का टलना
- पुस्तक : संकलित कविताएँ (पृष्ठ 105)
- संपादक : नंदकिशोर नंदन
- रचनाकार : गोपाल सिंह नेपाली
- प्रकाशन : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
- संस्करण : 2013
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