एक ख़ूबसूरत बेटी का पिता हूँ मैं
हालाँकि इसमें नया कुछ भी नहीं है
इस दुनिया में तमाम पिता हैं जिनकी बेटियाँ ख़ूबसूरत हैं
फिर बेटी कैसी भी हो वह अपने पिता को
ख़ूबसूरत ही आती है नज़र
दरअसल उन तमाम पिताओं की तरह
मेरा भय भी यही है कि मैं एक ख़ूबसूरत बेटी का पिता हूँ
और मेरी बेटी की ख़ूबसूरती चुभती हुई है
क्योंकि मैं उसका पिता हूँ इसलिए तमाम बातें ऐसी हैं
जो मैं नहीं कर सकता उससे
लेकिन वे बातें मेरी सोच में रेंगती रहती हैं अक्सर
किसी लड़की को रिझाने उसके घर के चक्कर काटते
लड़के की तरह घूमती रहती है मेरे भीतर निरंतर
ज़िंदगी के सबसे विस्फोटक पंद्रहवें साल में चलती
मैं अपनी बेटी को समझाना चाहता हूँ कि उसने ख़ुद को
परेशानी में डाल लेने वाली ख़ूबसूरती पाई है
इसका अर्थ यह नहीं कि जो लड़कियाँ कम सुंदर होती हैं
उन्हें समझाइश की ज़रूरत नहीं होती दरअसल उन लड़कियों पर
वैसा दबाव नहीं होता, जैसा होता है
मेरी बेटी जैसी ख़ूबसूरत लड़कियों पर
इसलिए जितना रख सके वह रखे अपने आपको सँभालकर
बहुत कच्ची उम्र है यह और यही उम्र है जब
देह पर कच्चापन उसी तरह दमकता है
जैसे पेड़ पर लटकी अमियों पर गाढ़ा हरापन
हालाँकि यह बहुत कठिन है फिर भी
ऐसा नहीं कि इससे बचा नहीं जा सके
मैं उससे कहना चाहती हूँ वह जितनी हो सके
कोशिश करे उन नज़रों से ख़ुद को बचाने की
जो इसी उम्र को अपने तीखेपन से बेधती हैं
और नहीं छोड़ती कहीं भी पीछा
एक बात यह भी कि दुनिया-भर की ख़ूबसूरत बेटियों के
पिताओं से थोड़ा हटकर पिता मानता हूँ मैं ख़ुद को
मैं जानता हूँ कि वह लड़की है तो किसी से
प्यार भी करेगी, चाहेगी भी किसी को
कोई पसंद भी आएगा उसे
और मैं भी नहीं चाहता मेरी बेटी किसी से प्रेम नहीं करे,
फिर दुनिया का कोई पिता अपनी बेटी को
प्रेम करने से रोक भी नहीं सकता
उसके भीतर पल रहे उस एहसास को
किसी भी तरह नहीं सकता खदेड़,
और तमाम प्रयासों के बाद भी अपने, उसके भीतर की
गुलाबी दीवार पर चिपके किसी चित्र को
नहीं फेंक सकता फाड़कर
और नहीं रोक सकता उसे किसी भी उम्र मे करने से प्रेम
प्रेम के लिए क्या पंद्रह और क्या पच्चीस
दरअसल मैं अपनी बेटी से कहना चाहता हूँ
वह प्रेम करे तो थोड़ा रुककर
प्रेम करने की सही उम्र नहीं यह,
हालाँकि यह भी सच है कि एक यही उम्र है जिसमें
सबसे तेज़ होती है प्रेम की गति
इसी उम्र में कुएँ की देह से निकलकर जल
मेड़ के चारों तरफ़ बगरता है
और मन की कोमल चिड़िया अपनी चोंच में
आकाश से सबसे बड़ा तारा उठा लाती है
दरअसल मैं चाहता हूँ कि मेरी बेटी
काँपते और डरते हुए नहीं, इस डगर पर
सँभलकर चलते हुए करे प्रेम,
अपने भीतर अद्भुत स्वाद लिए बैठे प्रेम के इस फल को
वह हड़बड़ी में नहीं धैर्य से नमक के साथ चखे
इसकी ख़ुशबू को वह इस तरह अपने भीतर रोपे
कि वह ज़िंदगी-भर फूटती रहे उसके भीतर से
हालाँकि प्रेम के बारे में इतना सोचना
इतना गणित प्रेम न करने जैसा ही है
और सभी जानते हैं कि प्रेम का हरा रंग
जब आँखों में बिखरता है आकर
मन बौरा जाता है
एक पागलपन हो जाता है इस पर सवार,
और मैं चाहता हूँ कि वह इस पागलपन को
अपने पर पूरी तरह से न होने दे हावी,
लेकिन प्रेम के लिए ज़रूरी इस पागलपन को
वह नकारे भी नहीं पूरी तरह से
प्रेम की तीव्रता एकांत चाहती है और वह
प्रेमाभिव्यक्ति से देहाभिव्यक्ति की ओर बढ़ती है
और प्रेम में यह बढ़ना हो ही जाता है
मैं नहीं कहता कि देह अपवित्र चीज़ है
लेकिन वह पवित्र भी नहीं उतनी
कि हर समय उसकी चिंता में घुलते रहा जाए
लेकिन मैं कहता हूँ कि प्रेम अमूल्य है
उसका एहसास अवर्णनीय है
बहुत गहरा संबंध है प्रेम का देह से
दरअसल प्रेम का बचना ही देह का बचना भी है
प्रेम बचा रहता है तो देह भी बची रहती है अपने विश्वास में
सिर्फ़ भय ही नहीं एक ख़ूबसूरत बेटी का पिता होने का
जो उल्लास होना चाहिए मेरे भीतर
वह मेरे भीतर है और दो गुना है
फिर भी मेरी चिंता में मेरी बेटी की ख़ूबसूरती
शामिल है और शामिल है यह दृढ़ता
यदि इस सबके बावजूद भी उससे कोई ग़लती होती है तो हो जाए
उसके पीछे उसे उबारने के लिए मैं खड़ा हूँ तत्पर
- पुस्तक : स्त्री मेरे भीतर (पृष्ठ 18)
- रचनाकार : पवन करण
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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