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जीवन की कला

jiwan ki kala

ऋतुराज

ऋतुराज

जीवन की कला

ऋतुराज

कला में जीवन की वासना नहीं होती तो वह

जीवन की पुनर्रचना कैसे करती? नशे में अधिक नशे की

इच्छा की तरह कला का प्रेम और प्रेम करने की कला

यदि अभिन्न नहीं होते तो तो प्रेमी को ही नींद

आती और ही कलाकार को। अनिद्रा रोग से पगलाए

वे किसी की भी हत्या कर देते या ख़ुद को...

नहीं, नहीं, इस सबसे इतनी जल्दी मुक्ति संभव होती तो

किसी अपरिचित-सी स्त्री के प्रति समर्पित होने की

क्या ज़रूरत होती? यदि अतृप्ति ही इसका दूसरा रूप है

तो भूख-प्यास में भी यह ससुरी रचना कैसे होती?

जीवन की वासना को सीढ़ी-दर-सीढ़ी स्थूल बोझ की तरह

कला की अट्टालिका पर चढ़ाते हुए हम नई-नई आसक्तियों

से छलनी हो जाते हैं। दूसरे के जले और ख़ुद के जलने के

चिह्न अपनी देह पर देखते हुए फफोलों को अपनी कृतियों

का रूप देते हुए हम सशरीर अपनी पापी आत्मा को

कला के स्वर्ग में ले जाते हैं

यदि कला के जीवन में नरक का ही विधान होता तो

हम वासना के शीर्ष पर पहुँचकर यह अनंत उड़ान कैसे भरते?

स्रोत :
  • पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 67)
  • रचनाकार : ऋतुराज
  • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
  • संस्करण : 2009

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