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ओ जन-मन के सजग चितेरे

o jan man ke sajag chitere

नागार्जुन

नागार्जुन

ओ जन-मन के सजग चितेरे

नागार्जुन

और अधिकनागार्जुन

    हँसते-हँसते, बातें करते

    कैसे हम चढ़ गए धड़ाधड़

    बंबेश्वर के सुभग शिखर पर

    मुन्ना रह-रह लगा ठोकने

    तो टुनटुनिया पत्थर बोला—

    हम तो हैं फ़ौलाद, समझना हमें तुम मामूली पत्थर

    नीचे है बुंदेलखंड की रत्न-प्रसविनी भूमि

    शीश पर गगन तना है नील मुकुट-सा

    नाहक़ नहीं हमें तुम छेड़ो…

    फिर मुन्ना कैमरा खोलकर

    उन चट्टानों पर बैठे हम दोनों की छवियाँ उतारता रहा देर तक

    नीचे देखा :

    तलहटियों में

    छतों और खपरैलों वाली

    सादी-उजली लिपी-पुती दीवारोंवाली

    सुंदर नगरी बिछी हुई है

    उजले पालों वाली नौकाओं से शोभित

    श्याम-सलिल सरवर है बाँदा

    नीलम की घाटी में उजला श्वेत कमल-कानन है बाँदा!

    अपनी इन आँखों पर मुझको

    मुश्किल से विश्वास हुआ था

    मुँह से सहसा निकल पड़ा—

    क्या सचमुच बाँदा इतना सुंदर हो सकता है

    यू.पी. का वह पिछड़ा टाउन कहाँ हो गया ग़ायब सहसा

    बाँदा नहीं, अरे यह तो गंधर्व नगर है…

    उतरे तो फिर वही शहर सामने गया!

    अधकच्ची दीवारोंवाली खपरैलों की ही बहार थी

    सड़कें तो थीं तंग किंतु जनता उदार थी

    बरस रही थी मुस्कानों से विवश ग़रीबी

    मुझे दिखाई पड़ी दुर्दशा ही चिरजीवी

    जन-मन के सजग चितेरे

    साथ लगाए हम दोनों ने बाँदा के पच्चीसों फेरे

    जनसंस्कृति का प्राणकेंद्र पुस्तकागार वह

    वयोवृद्ध मुंशी जी से जो मिला प्यार वह

    केन नदी का जल-प्रवाह, पोखर नवाब का

    वृद्ध सूर्य के चंचल शिशु भास्वर छायानट

    सांध्य घनों की सतरंगी छवियों का जमघट

    रॉड ज्योति से भूरि-भूरि आलोकित स्टेशन

    वहीं पास में भिखमंगों का चिर-अधिवेशन

    काग़ज़ के फूलों पर ठिठकी हुई निगाहें

    बसें छबीली, धूल भरी वे कच्ची राहें

    द्वारपाल-सा जाने कब से नीम खड़ा था

    ताऊजी थे बड़े कि जाने वही बड़ा था

    नेह-छोह की देवी, ममता की वह मूरत

    भूलूँगा मैं भला बहूजी की वह सूरत?

    मुन्नू की मुस्कानों का प्यासा बेचारा

    चिकना-काला मखमल का वह बटुआ प्यारा

    जी, रमेश थे मुझे ले गए केन नहाने

    भूल गया उस दिन दतुअन करना क्यों जाने

    शिष्य तुम्हारे शब्द-शिकारी

    तरुण-युगल इक़बाल-मुरारी!

    ऊँचे-ऊँचे उड़ती प्रतिभा थी कि परी थी

    मेरी ख़ातिर उनमें कितनी ललक भरी थी

    रह-रह मुझको याद रहे मुन्ना दोनों

    तरुणाई के ताज़ा टाइप थे वे मोनो

    बाहर-भीतर के वे आँगन

    फले पपीतों की वह बगिया

    गोल बाँधकर सबका वह ‘दुखमोचन’ सुनना

    कड़ी धूप, फिर बूँदाबाँदी

    फिर शशि का बरसाना चाँदी…

    चितकबरी चाँदनी नीम की छतनारी डालों से

    छन-छन कर आती थी

    आसमान था साफ़, टहलने निकल पड़े हम

    मैं बोला : केदार, तुम्हारे बाल पक गए!

    ‘चिंताओं की घनी भाफ में सीझे जाते हैं बेचारे’—

    तुमने कहा, सुनो नागार्जुन,

    दुख-दुविधा की प्रबल आँच में

    जब दिमाग़ ही उबल रहा हो

    तो बालों का कालापन क्या कम मखौल है?

    ठिठक गया मैं, तुम्हें देखने लगा ग़ौर से…

    गौर-गेहुँआ मुख-मंडल चाँदनी रात में चमक रहा था

    फैली-फैली आँखों में युग दमक रहा था

    लगा सोचने—

    तुम्हें भला क्या पहचानेंगे बाँदावाले!

    तुम्हें भला क्या पहचानेंगे साहब काले!

    तुम्हें भला क्या पहचानेंगे आम मुवक्किल!

    तुम्हें भला क्या पहचानेंगे शासन की नाकों पर के तिल!

    तुम्हें भला क्या पहचानेंगे ज़िला अदालत के वे हाकिम!

    तुम्हें भला क्या पहचानेंगे मात्र पेट के बने हुए हैं जो कि मुलाज़िम!

    प्यारे भाई, मैंने तुमको पहचाना है

    समझा-बुझा है, जाना है…

    केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो!

    कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो!

    ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो!

    कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो!

    खड़ी सुनहली फ़सलों की छवि-छटा निराली, वह भी तुम हो!

    लाठी लेकर कालरात्रि में करता जो उनकी रखवाली वह भी तुम हो!

    जनगण-मन के जाग्रत शिल्पी,

    तुम धरती के पुत्र : गगन के तुम जामाता!

    नक्षत्रों के स्वजन कुटुंबी, सगे बंधु तुम नद-नदियों के!

    झरी ऋचा पर ऋचा तुम्हारे सबल कंठ से

    स्वर-लहरी पर थिरक रही है युग की गंगा

    अजी, तुम्हारी शब्द-शक्ति ने बाँध लिया है भुवनदीप कवि नेरूदा को

    मैं बड़भागी, क्योंकि प्राप्त है मुझे तुम्हारा

    निश्छल-निर्मल भाईचारा

    मैं बड़भागी, तुम जैसे कल्याण मित्र का जिसे सहारा

    मैं बड़भागी, क्योंकि चार दिन बुंदेलों के साथ रहा हूँ

    मैं बड़भागी, क्योंकि केन की लहरों कुछ देर बहा हूँ

    बड़भागी हूँ, बाँट दिया करते हो हर्ष-विषाद

    बड़भागी हूँ, बार-बार करते रहते हो याद

    स्रोत :
    • पुस्तक : मेलजोल (केदारनाथ अग्रवाल षष्ठिपूर्ति विशेषांक, वर्ष 3, अंक 7-6 जुलाई 1970)
    • संपादक : श्रीप्रकाश
    • रचनाकार : नागार्जुन

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