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अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे

agar hamne tay kiya hota ki hum nahin jayenge

देवी प्रसाद मिश्र

देवी प्रसाद मिश्र

अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे

देवी प्रसाद मिश्र

 

यह कविता लाखों श्रमजीवियों के साथ चार कवियों संजय कुंदन, विष्णु नागर, नवल शुक्ल और धीरेंद्र नाथ तिवारी के लिए जिनके प्रति मैंने फ़ोन पर बेहतरीन कविताएँ लिखने के लिए कृतज्ञता ज़ाहिर की। यह कविता इन कवियों की उन चार उत्कृष्ट कविताओं की संवेदना और समझ में एक और पक्ष को जोड़ने की विनम्रता भर है।

अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे
अगर हमने तय किया होता कि हम वापस नहीं जाएँगे
तो हम पूछते कि देश के विभाजन के समय जैसे इस पलायन में
कौन किस देश से निकल रहा था और किस देश की तरफ़ जा रहा था
हैव और हैवनॉट्स के हैबतनाक मंज़र में।

तब हम पूछते कि हम युद्ध के हताहत शरणार्थी थे
या स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का वादा करने वाली
संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकता।

तब हम पूछते कि सौ करोड़ और पाँच सौ करोड़ के
प्रतिष्ठान और स्थापत्य की रक्षा के लिए हमें
गार्ड और गेटकीपर के तौर पर एक दिन के लिए
दो और तीन सौ रुपए क्यों दिए जाते थे।

अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे तो हम बताते
कि मेज़ पर किताब रखकर पढ़ने से कम बड़ा काम नहीं है मेज़ बनाना।

तब हम पूछते कि सिर पर ईंट ढोना
एक अच्छे घर में रहने की हक़दारी और दावेदारी
को किस तरह कम कर देता है।

तब हम बताते कि शहर की रौशनी को ठीक करने के बाद
अपने घर के अँधेरे में लौटते हुए
हमारा दिल कितना फटता था
और यही लगता था कि सारे शहर की बत्ती की सप्लाई प्लास से काट दें।

तब हम बताते कि घर लौटकर टी.वी. पर हम
अंगिया चोली वाला भोजपुरी गाना या सपना चौधरी की कमर नहीं देखना चाहते थे
हम भोजपुरी और हरियाणवी में देखना चाहते थे सलीम लंगड़े पे मत रो

तब हम बताते कि चैनलों और अख़बारों में प्रियंका-जोनास, शिल्पा शेट्टी-राज कुंद्रा, सोनम कपूर-आनंद आहूजा की निस्सार पेड इंस्टाग्राम प्रेम-कथाओं और तैमूर, रूही और यश की आभिजात्य मासूमियत से हम ऊबे हुए हैं। और क्यों लापता हैं नीम के नीचे खलिहान में किए गए हमारे प्रेम के वृत्तांत और काजल लगे धूल में सने हमारे बच्चों की दरिद्र अबोधताओं के काले-साँवले विवरण, घेरती जाती इस चमकीली गिरावट में।

हम अपने चीथड़ों से चमकते परिधानों को लज्जित कर देते।

हम सरकार को अनफ़्रेंड कर देते।

हम अमिताभ बच्चन से कहते
कि सत्ता की थाली मत बजाओ
बाजा मत बनो, अकबर बनो, कैंड़ेदार इलाहाबादी बनो
इलाहाबादी असहमति की अकड़, मनहूसियत और मातम।

तब हम नितिन गडकरी से कहते कि चचा,
यह सावरकर मार्ग हमें हमारे विनाश की तरफ़ ले जाता है
हम नहीं जाने वाले इस हेडगेवार पथ पर।

अगर हमने तय किया होता कि हम गाँव नहीं जाएँगे तो हम बताते कि हमारे बच्चे स्कूल जा सकते हैं, हमारी पत्नी कहानी पढ़ सकती है, हम छुट्टी ले सकते हैं और हम यमुना के तट पर पिकनिक के लिए जा सकते हैं; अगर उसके काले जल से शाखाई हिंदुत्व के घोटाले की बू न आ रही हो तो।

अगर हमने तय किया होता कि नहीं जाएँगे हम तब हम यह गाना गाते :

भूख ज़्यादा है
मगर पैसे नहीं हैं

सभ्यता हमने बनाई
खिड़कियाँ की साफ़ हमने
की तुम्हारी बदतमीज़ी माफ़ हमने

जान लो ऐसे नहीं वैसे नहीं हैं
भूख ज़्यादा है मगर पैसे नहीं हैं

डस्टबिन हमने हटाए
वह वजह क्या जो हमें कमतर दिखाए
क्यों लगे बे, आदमी जैसे नहीं हैं
भूख ज़्यादा है मगर पैसे नहीं हैं

अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे तो हम पूछते कि क्यों
अख़बार बाँटने वाले के घर का चूल्हा जल जाए तो ग़नीमत
जबकि ख़बर का धंधा करने वाला अरबों के धंधे में लिथड़ा होता है
और रोज़ थोड़ा-थोड़ा धीमा-धीमा देश जलाने का काम करता रहता है।

अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे तो हम नोबेल पाने वाले अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी से पूछते कि सारे मामले को जो है सो है और थोड़ा-बहुत रद्दोबदल वाले अंदाज़ में ही क्यों देखते हो; क्यों सही बात नहीं कहते कि यह ढाँचा खो चुका है अपनी वैधता।

स्रोत :
  • रचनाकार : देवी प्रसाद मिश्र
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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