बनारस
banaras
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की स्मृति को
पहले पहल जब
लोहे-काठ और पत्थरों से मिलकर
मनुष्यों ने बनाए नगर
नदियों ने दी सभ्यताएँ
तभी सिंदूरी बिंदी की तरह
धरती के भाल पर उगा बनारस।
अगर गंगा न होती इसकी सहेली
अड़भंगी न होते इसके किरदार
तो औरों की तरह कब का
पत्थर हो गया होता बनारस।
थिब्ज, एथेंस, सिकंदरिया
कहीं भी नहीं हुआ ऐसा
कि लोहा हो जाए विश्वकर्मा
काठ हो जाए वासदेव और पत्थर महादेव।
अपने पुराने संगियों को आज भी
सीने से चिपकाए है बनारस।
फिर भी जानता है लोहे का स्वाद
काठ के क़ायदे
और पाहन की जाति
कि तनिक भी पेट में चला जाए नमक
तो पसीजता है बनारस।
दुनिया जब सिर्फ़ लॉलीपाप लिए खड़ी होगी
तो अपनी रबड़ी-मलाई के लिए
बहुत याद आएगा बनारस।
जैसे ठहाके, अट्टहास, खिलखिलाहट
दुनिया की सारी हँसियाँ जुटाई जाएँ एक साथ
तो अपनी हँसी में सबसे अलग होगा बनारस।
किसी शास्त्रवादी को देखकर
किसी बनारसी ने ही कहा होगा
काठ का उल्लू।
सावनी गंगा की तरह उठी होगी तरंग
जब किसी युवा संन्यासी मन में
तो उसने ही रोपा होगा पहली बार
काशी में तुलसी की जगह भाँग का बिरवा।
किसी बनारसी चित्रकार ने ही बनाया होगा
अपने नगर अधिपति महेश के बेटे गणेश का
लंबोदर चित्र।
आज भी पक्के महाल के गवाक्षों से
जब कोई अल्हड़ युवती
फेंकती है पान की पीक
तो मुझे अघोरी मठ नहीं
याद आता है इसका अतीत
कि बनारस की गलियों में घूमकर ही
शाइरी में आया होगा ‘कूच-ए-यार’
जिन गलियों में ठुमक-ठुमक चलकर सयानी हुई ठुमरी
जहाँ सुर्ती-सोपाड़ी-कत्थे-चूने-पान ने
बनाया लाली रचे होंठों का वृत्तचित्र
वहीं अलापी नकबेसर दाल मंडी
‘एहिं ठैंया झुलनी हेरानी हो रामा’।
दुनिया के सबसे जीवंत नगर में
दुनिया का सबसे व्यस्त श्मशान
साँडों के शहर का कोतवाल श्वान
काशी की करवट और गंगबीच धार
ठगी का ठीहा और फक्कड़ व्यवहार
दानी के दे और भीखमंगी थार
मुक्ति की गाय पर पंडा असवार
तिलक-रोली-चंदन का दैनिक व्यवहार भी
नहीं छिपा सका ललाट के दाग़
और कबीर की उलटबाँसी हो गया बनारस
लेकर भी अपने घाटों पर
काव्य और दर्शन का अद्भुत सम्मोहन।
- पुस्तक : इसी काया में मोक्ष (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : दिनेश कुशवाह
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2013
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