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मुझे मेरी भीतर छुपी रोशनी दिखाओ

mujhe meri bhitar chhupi roshni dikhao

नरेश सक्सेना

नरेश सक्सेना

मुझे मेरी भीतर छुपी रोशनी दिखाओ

नरेश सक्सेना

और अधिकनरेश सक्सेना

    सूर्यास्त के बाद भी

    बहना बंद नहीं करती नदियाँ

    बल्कि और तेज़ी से, गहन अंधकार में

    छलाँगें लगातीं काई लगी चिकनी चट्टानों पर

    ख़तरनाक ऊँचाइयों से

    कूद पड़तीं अंधी गहरी खाइयों में

    झाड़ियों दरारों और जंगलों के आर-पार

    लगता है

    उनके भीतर छुपी कोई रोशनी

    ज़रूर उनके साथ-साथ चलती है

    रामगाड में

    टरबाइन के पंखों में जूझकर हमने उसे

    प्रकट होते देखा और उसी रोशनी में काम करती

    नौ बरस की राजी के लिए कई ‘शौट’

    पहले सकुचाई, फिर पूछने लगी राजी

    यह हमारी नदी की रोशनी है?

    हाँ

    पानी घट जाए तो रोशनी भी घट जाएगी

    हाँ

    गिलास के पानी में रोशनी है

    नहीं, बहते हुए पानी की ताक़त में है रोशनी

    जिस ताक़त से तुम करती हो काम

    उसमें है रोशनी!

    मेरे भीतर रोशनी, साबजी?

    हाँ

    कितनी? सूरज जितनी, मैंने कहा।

    नहीं, झूठ!

    चाँद जितनी

    नहीं, राजी बोली

    अच्छा, दीये जितनी मैंने कहा

    दीये जितनी क्यों? पूछा राजी ने

    दीये जितनी क्यों नहीं? मैंने कहा

    बल्ब जितनी क्यों नहीं?

    बल्ब जितनी क्यों?

    क्योंकि उससे टी.वी. चल सकता है।

    हाँ उतनी तो होगी, मैंने कहा

    ‘तो दिखाओ मुझे मेरे भीतर की रोशनी’

    मैं स्तब्ध!

    फ़िल्म के दृश्य में

    नैनीताल की पहाड़ियों से टकराता

    गूँजता है राजी का प्रश्न

    ‘तो दिखाओ मुझे मेरे भीतर की रोशनी’

    दुनिया की करोड़ों-करोड़ राजियाँ

    और नदियाँ कहती हुई एक साथ

    दिखाओ मुझे मेरे भीतर छुपी हुई रोशनी

    सूरज जितनी नहीं

    चाँद जितनी नहीं

    सिर्फ़ एक बल्ब जितनी रोशनी!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सुनो चारुशीला (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : नरेश सक्सेना
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2012

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