बस्स! बहुत हो चुका
bass! bahut ho chuka
जब भी देखता हूँ मैं
झाड़ू या गंदगी से भरी बाल्टी-कनस्तर
किसी हाथ में
मेरी रगों में
दहकने लगते हैं
यातनाओं के कई हज़ार वर्ष एक साथ
जो फैले हैं इस धरती पर
ठंडे रेतकणों की तरह।
मेरी हथेलियाँ भीग-भीग जाती हैं
पसीने से
आँखों में उतर आता है
इतिहास का स्याहपन
अपनी आत्मघाती कुटिलताओं के साथ।
झाड़ू थामे हाथों की सरसराहट
साफ़ सुनाई पड़ती है भीड़ के बीच
बियाबान जंगल में सनसनाती हवा की तरह।
वे तमाम वर्ष
वृत्ताकार होकर घूमते हैं
करते हैं छलनी लगातार
उँगलियों और हथेलियों को
नस-नस में समा जाता है ठंडा-ताप।
गहरी पथरीली नदी में
असंख्य मूक पीड़ाएँ
कसमसा रही हैं
मुखर होने के लिए रोष से भरी हुईं।
बस्स!
बहुत हो चुका
चुप रहना
निरर्थक पड़े पत्थर
अब काम आएँगे संतप्त जनों के!
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 67)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : ओमप्रकाश वाल्मीकि
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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