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तीसरी नदी

tisri nadi

लक्ष्मण गुप्त

लक्ष्मण गुप्त

तीसरी नदी

लक्ष्मण गुप्त

और अधिकलक्ष्मण गुप्त

    मुझे बताया गया था

    इलाहाबाद आने के बहुत पहले ही

    कि इसी शहर में त्रिवेणी है

    इसे देखो तो अपार सुख मिलता है

    स्पर्श करो तो पुरखें

    कोटि-कोटि देते हैं आशीष

    इसमें उतर जाओ तो मानो

    हज़ार बरस का अनदेखा भी

    आँखों में दिखने लगता है

    वहाँ पहुँचकर मैंने देखा

    एक ओर से रही है गंगा

    हाँ, वही गंगा

    जिसकी लहरों पर

    एक सभ्यता की इबारत

    अपने पूरेपन के साथ मौजूद है

    जिसे पढ़ने में असमर्थ है

    मेरी पीढ़ी

    दूसरी ओर से रही यमुना

    हाँ, वही यमुना

    जो देश की राजधानी की घुटन से

    बचते-बचाते

    उधार की साड़ी पहने

    इठलाती हुई पहुँचती है यहाँ

    अपने सौभाग्य पर मुस्कुराते हुए

    तीसरी ओर से नहीं रही

    कोई धारा

    आँखों ने नहीं देखी

    कोई तीसरी नदी

    यह मेरी आँख का दोष है

    या उनका जो बग़ैर देखे भी

    सदियों से इसे देखते रहे हैं

    और लौटते हुए उनकी अँजुरी से

    टपक रहा है त्रिवेणी का जल

    जिसमें ग़ायब है

    तीसरा रंग

    हाँ, वही तीसरा रंग

    जिसकी उपस्थिति बाक़ी दो रंगों के लिए

    दे सकती है तर्क को जन्म

    उठा सकती है आस्था पर सवाल

    बना सकती है

    लोक को अपना नायक

    रच सकती है

    पुण्य की सकर्मक भूमि

    लौटते हुए

    त्रिवेणी के तट से

    मैं हर किसी की निगाह में

    ढूँढ़ रहा हूँ

    वह तीसरी नदी

    जिसे सदियों पहले

    किसी के पुरखें उठा ले गए थे

    अपनी अँजुरी में!

    स्रोत :
    • रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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