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तीसरे लोग

tisre log

अखिलेश जायसवाल

अखिलेश जायसवाल

तीसरे लोग

अखिलेश जायसवाल

और अधिकअखिलेश जायसवाल

    उनका एकाधिकार है

    ताली बजाने के एक विशिष्ट प्रकार पर,

    चलने के एक अलग अंदाज़ पर,

    पैसे रखने की एक माँसल जगह पर,

    सुरों के एक फटे सप्तक पर,

    गानों की एक बिलाती विधा पर

    और गालियों की एक भदेस शैली पर।

    सस्ते सौंदर्य प्रसाधनों की

    चेहरे पर लिपी कई परतें,

    होठों से बाहर निकलते लिपस्टिक के रंग

    और लगभग निकलने को बेताब

    उनकी खुंटियाई हुई दाढ़ियों के बाल।

    झिटक दिया है उन्होने

    अपने अंदर के पुरुष को।

    फिर भी बच गया है पुरुष

    उनकी आवाज़ में,

    बाहों की माँसपेशियों में

    और कुछ अन्य जगहों पर भी

    जिसे वो दिखाना नहीं चाहते

    लेकिन

    बड़ी शिद्दत से उभारा है उन्होंने

    अपने वक्ष पर

    अपने अंदर बैठे स्त्रीत्व को

    जिसे वे दिखाना भी चाहते हैं

    मगर छिपाने का स्वाँग करते हुए।

    वे बराबर नाभिदर्शना साड़ी बाँधते हैं

    और अपनी फुफुती पकड़ कर चलते हैं,

    और दिखाई पड़ती रहती हैं

    उनकी ब्रा की पट्टियाँ।

    हमारे गाँव में रोचना का भाई रुन्नी

    जिसे लोग मउगा कहते थे,

    कुछ ऐसे ही चलता था

    अपने गमछे से अपनी छाती ढके हुए

    और अपनी कमर मटकाते हुए।

    नई उमर के लड़के

    उसे चिड़काने के लिए

    अक्सर बोल भी देते थे—

    काऽ हो बतासा!, जिया हो लवंग!

    तो वह अपने हाथ की बीच वाली अँगुली

    टेढ़ी कर हाथ सामने वाले की ओर झटकता

    और फिर गरियाता—

    मुँहफुकौना, मरकिनौना,

    तोके बाई धरे, तोर माटी लागे

    और फिर हाथ चमका कर कहता—

    मारब जे जनबाऽ।

    ये तीसरे लोग हैं

    और उनकी एक दुनियाँ है तीसरी,

    जिसमें है केवल बधावा, नृत्य और गान

    और भूत भविष्य

    केवल वर्तमान।

    हालाँकि उनकी परंपराओं को भी

    समय की फफूँद लग गई है

    नहीं तो लोकगीतों के उत्सवधर्मी इस देश में

    वे एक विधा के सार्थवाह रहे हैं

    और अक्सर मैंने उन्हें देखा था

    बलाएँ लेते, नाचते और सोहर गाते—

    'जुग-जुग जियसु ललनवाँ भवनवाँ के भाग जागल हो।'

    और साथ में ढोलक पर किसी किसी को तो

    बहुत अच्छा तिरकिट भी लगाते हुए।

    वे अपने को मंगलमुखी कहते हैं,

    मंगल कामनाओं से ओत प्रोत।

    लेकिन अब उनमें भी नही दिखाई पड़ती

    उनके तीसरेपन की एक नफ़ासत।

    अब तो प्रायः वे दिख जाते हैं बस और ट्रेनों में

    अपनी अँगुलियों में नोट दबाए हुए

    और ताली बजाकर पैसे माँगते हुए।

    हिक़ारत की हद झेल चुके

    उनमें आँसू नहीं ला पाता उनका अपमान,

    लेकिन कभी बात करता हूँ

    तो उनकी आँखों में आँसू ला देता है

    उनका सम्मान।

    गर्भ में शारीरिक विकास के

    बेहद संवेदनशील मुक़ाम पर

    कुछ लापरवाह लम्हों की ख़ता हैं वे,

    पुरुषत्व प्रेरक अंतःस्रावों की

    उदासीनता का पश्चाताप हैं वे,

    सर्वतः द्वैत से अभिभूत सृष्टि में

    अपने तीसरेपन के हस्तक्षेप की उपेक्षा हैं वे

    और पौरुष परायण प्रकृति में

    परुषता की केंचुल उतार फेकने पर

    उत्तरवर्ती स्त्रैणता का उपहास हैं वे।

    वे शरीर के मधुमास से वंचित हैं,

    वे उसके बसंत से अपरिचित हैं,

    वे उसके पावस से परे हैं

    और वे तो सिर्फ़ पतझड़ हैं।

    वे न्यूनाङ्ग हैं, हीनाङ्ग हैं, विकलाङ्ग हैं,

    लेकिन कहाँ वे दिव्याङ्ग हैं???

    अपनी पौराणिक और ऐतिहासिक प्रविष्टियों के लिए भी

    मुखापेक्षी नहीं हैं वे किसी द्वैपायन या बाल्मीकि के।

    कितने शिखंडी ओर बृहन्नलाओं ने

    इतिहास की दिशा बदली है

    और या तो पाला है

    या पराजित किया है पौरुष को।

    द्वापर से त्रेता तक विस्तार है उनका,

    वे मुगलकालीन ख़्वाजा-सरा हैं

    और मुगलकालीन हरमों में

    सिर्फ़ उनका ही है आना जाना।

    मूल कथा में तो नहीं

    लेकिन क्षेपकों में यह बात आती है कि

    कभी भगवान राम ने वनगमन के समय

    अयोध्या के सभी नर-नारियों से

    घर वापस लौट जाने को कहा था

    ऐसे में वहीं खडे़ रह गए थे

    ये तीसरे लोग

    सरजू के घाट पर

    और नहीं लौटे थे घर।

    आज भी वैसे ही खड़े हैं ये तीसरे लोग

    नहीं लौट सके हैं घर।

    वे आज तक बाट जोह रहे हैं

    अपने राम की

    अपने उद्धारक की।

    बस बदल भर गया है

    सरजू का घाट

    और अब हर जगह ही है

    सरजू का घाट।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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