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थकी हुई स्त्री

thaki hui istri

विजय कुमार

विजय कुमार

थकी हुई स्त्री

विजय कुमार

बर्तन-भाँडे

और चूल्हे चौके के बाद

एक थकी हुई स्त्री जब नींद के आग़ोश में होती है

दरवाज़े के पेट अचानक खुल जाते हैं

दिन भर जो हवा, आकाश

चंद्रमा और फूलों की गंध

यहाँ-वहाँ भटकते रहे थे

एक अपराध-भावना में घिरे घर में घुसते हैं

स्त्री के सिरहाने बैठे तमाम सितारे

एक दूसरे को इशारा कर

अपनी गपशप बंद कर देते हैं

पलंग के नीचे वहाँ एक बिछा हुआ समुद्र

पहले से अधिक करुण

ज़्यादा विकल

कहता है : तुम्हारे आँसुओं में

नमक मुझसे ज़्यादा है

दीवार घड़ी भी फुसफुसाती है

तुम निश्चिंत रहो स्त्री

मेरे भीतर अब समय नहीं

प्रेम है, सिर्फ़ प्रेम

दवा की शीशियाँ, पकड़े

कुर्सियाँ, चप्पल

नल, बल्टियाँ

कंघी

सबके सब रह-रहकर

पक्षियों की तरह उड़ान भरते रहते हैं

कमरे में रात भर

परंतु थकी हुई स्त्री शायद नींद में थी

शामिल नहीं होती इस सारे खेल में

वह मुस्कुराती है

स्वप्न में ही आहिस्ता से करवट बदल लेती है

नींद में वह कूछ बुदबुदा रही है

उसे समझ में आने वाले शब्द

इस सारे जादू को छिन्न-भिन्न किए दे रहे हैं।

स्रोत :
  • पुस्तक : चाहे जिस शक्ल से (पृष्ठ 29)
  • रचनाकार : विजय कुमार
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 1995

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