एक
इस उमस
उन आँधियों से
कसमसाहट में कटे दिन।
झर गए अमराइयों से
घिर गए हम खाइयों से।
दुखद स्वप्नों में पड़े—
इन छूटती परछाइयों से
अकबकाहट में कटे दिन
मंच से बाहर निकलना
दृश्य का पूरा बदलना।
कोशिशें
जारी रहीं, पर
इस बहस उन व्याधियों से—
छटपटाहट में कटे दिन।
जेब सुविधाओं भरे अब,
और वर्जित फल चखे जब।
वर्ग से ख़ारिज हुए तो,
इन तख़त
उन गादियों से—
चौधराहट में कटे दिन।
दो
प्यास खोदती रही खाइयाँ,
भूख उठाती रही फ़सीलें।
एब्सट्रेक्ट सूझें हों या फिर ठोस इरादे,
श्रम के हाथों मूर्त हुए ये क़समें-वादे।
जन के ख़ाली पेट : पोखरे
सूख रही आँखें ज्यों झीलें।
मीत चैतुआ भरी दुपहरी
खेत-खेत में गेहूँ चुनते,
सुख-सुहाग के जोड़े उनके,
अपने कफ़न रोज़ ही बुनते।
ठियों, ठिकानों, अड्डों पर जन
ठुके हुए ज्यों खूँटी-खीलें।
पारे जैसे ताप शीत से
गुज़र गए इतिहास उतर-चढ़
उत्तर से चलकर दक्खिन तक,
लाल क़िले हों या असीरगढ़।
भूख प्यास ने यादगार में
ताजमहल-सी गढ़ी दलीलें।
तीन
सूखे के सन् संवत हिजरी बाढ़ की,
उखड़ी-उखड़ी साँसें बूढ़े झाड़ की।
प्रोढ़ा चील
सयाने कौवे डाल पर,
मौसम
मार रहे हैं थप्पड़ गाल पर।
मैदानों जैसी ही कथा पहाड़ की।
पूस और फागुन के
अंतर झर गए।
गर्म गृहों से देव उठे
बाहर गए।
भक्ति बावड़ी-सी है
किसी उजाड़ की।
कहने को तो
वैसे सब कुछ ठीक है,
झाड़ देश का
आधा पौन प्रतीक है।
चिंताएँ भुनने से ज़्यादा भाड़ की।
- पुस्तक : साक्षात्कार 40-41 (पृष्ठ 134)
- संपादक : सोमदत्त
- रचनाकार : नईम
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