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तक़रीर मुँह ज़ुबानी

taqrir munh zubani

बालमुकुंद गुप्त

बालमुकुंद गुप्त

तक़रीर मुँह ज़ुबानी

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

     

    (1)

    चाहूँ तो क़लम लेके दिल सबका करूँ पानी।
    इस बात में नहीं है कोई भी मेरा सानी।
    पढ़-पढ़ मेरी लिखावट लाटों की मरे नानी।
    एक काम में हूँ कच्चा गो ख़ूब ख़ाक छानी।
    आती नहीं है मुझको तक़रीर मुँह ज़ुबानी॥

    (2)

    ग़ुस्से से अगर कोई आँखें मुझे दिखावे।
    झट उसके पाँव पकड़ूँ वह चट से भूल जावे।
    है कौन मीठी बातें मेरी तरह बनावे।
    लाटों के घर में जाकर उनको रिझाके आवे?
    आती नहीं है लेकिन तक़रीर मुँह ज़ुबानी॥

    (3)

    दरकार हो तो कर दूँ लाटों के कान भारी।
    दरकार हो तो कर दूँ हिंदू जहाज़ जारी।
    हिंदू धरम की रूसे लंडन की हो तैयारी।
    जो कहिए कर दिखावें क़ुदरत ये है हमारी।
    आती नहीं है लेकिन तक़रीर मुँह ज़ुबानी॥

    (4)

    हूँ धर्मपाल जी का हर वक़्त धर्म भाई।
    अलकाट से भी अपनी है ख़ूब आशनाई।
    जब जी में आया तब ही 'सोऽहं' की रट लगाई।
    सब कुछ है पर है तो भी एक बात की कचाई।
    आती नहीं है मुझको तक़रीर मुँह ज़ुबानी॥

    (5)

    फैलाऊँ वेद ले के मैं वेद की दुहाई।
    सब एक करूँ बाम्हन मोची हो या क़साई।
    है काँगरस में अपनी हर तरह से रसाई।
    फिर कनफरंस से क्योंकर न धुन सवाई?
    आती नहीं है लेकिन तक़रीर मुँह ज़ुबानी!

    (6)

    ताबीज गंडे मूली चाहे गले में डालूँ।
    संध्या करूँ तिलक भी माथे से मैं लगा लूँ।
    देवी की करूँ पूजा महावीर को रिझा लूँ।
    जो कहिए सो कौंसिल में लिखके तो मैं सुना लूँ।
    आती नहीं है लेकिन तक़रीर मुँह ज़ुबानी॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 672)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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