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तालाब के लिए लोरी

talab ke liye lori

अनाम कवि

अनाम कवि

तालाब के लिए लोरी

अनाम कवि

और अधिकअनाम कवि

    अब तारे जानने लगे हैं

    तुम्हारी आँखों में अपनी जगह

    और मछलियाँ उन्हें चुगने भटकती रहती हैं रात-भर

    तुम धरती की आँखें हो

    तुम देखते रहते हो आकाश

    कि जैसे कभी कभी उतरेगा मसीहा

    और उसकी प्रतीक्षा में

    सूखते, दरकते रहते हैं किनारे

    लोग और पशु तुम्हें भरते रहते हैं

    मैल और गंदगी से

    तुम्हारी आँखें संसार से बाहर जाने की खिड़कियाँ हैं

    जिनसे कोई-कोई चला जाता है चुपचाप

    छपाक् से रात के चौथे पहर

    तुमसे विसर्जित होती हैं आस्थाएँ

    तुममें विसर्जित होती है बारिश

    तुममें डूबती हैं इच्छाएँ, तारे तोड़ लाने की

    रात के सन्नाटे में स्तब्ध हो रहा है तुम्हारा पृष्ठ

    और बनैली आँखें चमकने लगी हैं किनारों पर

    कपड़े पछींटती औरतों के सीत्कार

    और ठकठक हो चुकी है शांत

    पशुओं के साथ बच्चों की जलक्रीड़ा का शोर

    अब थम चुका है

    तुम में विसर्जित दीए अब बुझ चुके हैं

    हालाँकि किनारे खड़े पेड़

    पत्तियाँ फेंककर

    तुम्हारी नींद जाँच रहे हैं

    तुम्हें सो जाना चाहिए इस वक़्त

    सो जाओ अपनी सीमाओं में निर्विघ्न

    यह जानकर कि किनारे छोड़ रही है धरती

    और चौथे पहर छलाँग लगाती कोई नव-वधू

    अब ख़लल नहीं डालेगी तुम्हारी नींद में

    सो जाओ कि थिर होकर तुम

    आकाश का दर्पण बन चुके हो

    सो जाओ, ख़ुद में दफ़न रहस्यों के साथ

    तुम्हारी साँसों की धुँध

    अब सतह पर छा रही है

    और नींद में जाने से पहले

    तुम्हारे लंबे हाथ

    धीरे-धीरे डोंगियों को धकेल रहे हैं किनारे तक

    किनारों पर जमा

    झींगुर और मेढकों ने

    शुरू कर दिया लोरी-संगीत

    सो जा, कि इस वक़्त तू

    लोगों की तृप्ति बनकर

    बुन रहा है सपने, उनकी नींदों में

    सो जा कि अभी-अभी ओस ने

    डाल दी चादर

    तुझमें ऊँघ रहे फूलों पर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक अनाम कवि की कविताएँ (पृष्ठ 142)
    • संपादक : दूधनाथ सिंह
    • रचनाकार : अनाम कवि
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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