ये कैसे हो सकता है, सरकार!

ye kaise ho sakta hai, sarkar!

सितांशु यश्चंद्र

सितांशु यश्चंद्र

ये कैसे हो सकता है, सरकार!

सितांशु यश्चंद्र

और अधिकसितांशु यश्चंद्र

    (साहब फिर से मुहल्ले की मुलाक़ात पर)

    ना, ना, ये कैसे हो सकता है सा’ब?

    ऐसा नहीं हो सकता!

    सरकारी हुकम से हमारी बस्ती का यह पूरा इलाका गोदाम का हिस्सा

    ज़ाहिर कर दिया जाएगा?

    पहले से ही था? कब से था, साब?

    पहले से यानी पहले से, साब?

    लेकिन, सरकार, पहले तो ये गोदाम था नहीं यहाँ।

    बस्ती? बस्ती तो थी ही, कम से कम मेरे दादा के समय से तो थी ही।

    मैं तो पैदा ही यहाँ हुआ था, सरकार।

    ये सब यहीं बड़े हुए थे।

    बस्ती तो बाद में हुई? असली, मूलभूत, पुराने, सरकारी दफ़्तर में, सही

    नाम यही था-गोदाम?

    मेरबान?

    मेमणवाड और दूसरी जगहों में भी वही हाल है?

    साहब?

    कहीं पर बस्ती नही हर जगह गोदाम?

    गोदाम में ही बस्ती हुई?

    गोदाम ही बस्ती है? बस्ती ही गोदाम है?

    नहीं-नहीं, बड़े सा'ब नहीं...

    ऐसा क्या हो सकता है, साहब?

    ऐसा नहीं हो सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जटायु, रुगोवा और अन्य कविताएँ
    • रचनाकार : सितांशु यशचंद्र
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

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