सचाई लेके अवतार, पैग़म्बर आए
सुधारा पर बिगड़ता ही गया संसार लेकिन
तबाही लेके, शेष आए, जो नेता
जुआ खेला इन्होंने मानव की खोपड़ियों से”
कहें क्या आम कितना है जुआ जारी
न जाने कितने बर्बाद-ओ-तबाह हैं
उधर एक मज़हब के शैतानी प्रकृति के लोग
ख़ुदा के नाम पर सत्य का अस्तित्व मिटाते हैं
न जाने कैसे मासूमों का कर रहे ख़ून हैं
किन्हीं बेबस नारियों के पाँव इनके सिर पर हैं
कहे हैं 'ईश्वर' एक और फिर द्वैत पूजें
यही सुन, जानकर छुरी चलाते—
कि इक मासूम का क़त्ल, बिना कारण—
है ऐसा पाप जैसे मारना जग के सभी लोग
पड़ोसी रक्त का प्यासा, उधर देखो पड़ोसी का
जला कर घर झुग्गियाँ, मार जीवित मनुष्यों को
बड़े ही चाव से ताली बजा कहता मिटाए शत्रु हैं हमने
कि जो थे मित्र बचपन के खेलते थे साथ
वही जो ये पले भाइयों जैसे
बटाते हाथ थे, जान देते थे परस्पर
मुसीबत में जो हो जाते न्योछावर
सहायक थे, ये नाते प्रेम के थे सब
न जाने क्या हुआ उस प्रेम का आदर भरोसे का!
और मर गया है आँखों का पानी मानो
हृदय की आर्द्रता अब विष बनी है
यह किस जादू ने पलटा समय को
यह बम रखा है किसने, उस होटल के अंदर
किसे उकसा दिया शैतानी शरारत ने
बिना कारण हुई अंधी है मन की आँख किसकी?
हुआ क्षण में यह भू-कंपन, धुआँ आकाश पर फैला
इधर बाँह गिर पड़ी जलती, उधर काया जली कोई
हैं जलती कामनाएँ, और हविस राख
उधर ढाया क़हर है समाजवादी व्यवस्था ने
उधर जनतंत्र ने है शफक़त का गला घोंटा
मनुष्य जाए कहाँ किस से व्यथा बाँटे
न शांति है, न है संतोष, न कोई है इलाज इसका
पीर ऐसी यह, सितम ऐसा : यातना ऐसी
मनुष्य है खोदता अपनी क़ब्र खुद
कोई जाने नहीं इस रोज़े-क़यामत को
बजना ही बदा कोबुद्धि और विद्या का प्रलयनाद
बमों के विस्फोट खोपड़ियों के ढेर लगा लें
होना है यहाँ सब नष्ट आख़िर
गुफ़ाओं की तरफ फिर इंसान कहीं रुख न कर ले
बसानी हो उसे शायद, यह दुनिया नई अबके
यह दुनिया फिर वहीं पहुँचेगी
पँहुचा गई थी नियति इसको जहाँ पहले!
- पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 51)
- संपादक : रतनलाल शांत
- रचनाकार : मिर्ज़ा आरिफ़
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2005
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