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स्वर्ग-बीज

svarg beej

अनुवाद : हरिशंकर शर्मा

सुनील कुमार

सुनील कुमार

स्वर्ग-बीज

सुनील कुमार

और अधिकसुनील कुमार

    बताओ, तृष्णार्त शांति का

    स्वच्छ जलपूर्ण सरोवर कहाँ-कहाँ है?

    वह्नि से स्पृष्ट जीवन का

    धू-धू करता हुआ बालुकामय तीर

    आदिगंत फैला हुआ है।

    नियमों के अनुज्ज्वल विषष्ण रुटीन ने

    जैसे ही अपने हाथ खींचे,

    उठा लो पृथ्वी के किसी

    जनहीन हरित प्रांतर का गीत;

    इसी से आख़िर बंदरगाह के नयनों में

    दोलायित करुण कुहासे से आच्छादित चित्र को

    समय के वक्ष पर रखकर

    मुझे भी सुर में सुर मिलाना पड़ा।

    स्मृति-कणों से आर्द्र

    मैदान-वनों को स्पर्श करते-करते यहाँ पहुँचा हूँ।

    शाल-शिरीषों के फ़्रेम में जड़ा हुआ

    निर्जन निद्रा के समान यह ग्राम।

    कनेर औ' हरसिंगार के फूलों की

    कोमल गंध से युक्त

    प्रभात की निद्रा भंग करने वाली हवा

    निर्जन पगडंडी पर पुकार लिया,

    मैदान-कन्या की भीगी साड़ी के

    ओसकणों को दोनो हाथों में भर जितना चाहा

    हृदय और मुख पर मला;

    तो भी क्या खोजी मन अस्थिर नहीं हुआ?

    रात्रि में पाकड़ की डाल पर

    जुगनुओं की भीरु झिलमिलाहट

    अचरज भरे नयनों से देखी है,

    और फिर कब सुनहली धूप से भीगी हुई

    पद्म-पोखर के किनारे

    झूमर सुना है संथाली लड़की के कंठ से,

    उसके बाद दोपहरी-भर

    अरण्य का पर्दा ठेल

    प्राचीन मंदिर में देखा

    शिल्पी का ध्रुपदी शिल्प

    तो भी क्या मन आकुल नहीं हो उठा?

    साँझ बीत जाने पर

    शीर्ण नदी के सिरहाने

    बैठा हूँ शुभ्र बालू के द्वीप में,

    वहाँ भोर के आकाश में

    डूबते हुए तारे के समान

    जीवन की व्यर्थ साध को दुर्जय आश्वास से

    कहो तो सही

    क्या मन हाथों से नहीं टटोलता फिरा

    दबे पाँव उतर, नील अंधकार में?

    हाय रे

    तब कहाँ है शांति का विधौत स्नान—

    क्या होगा निर्जन में भटक कर!

    अब भी समय है शायद।

    आओ, आओ बंदरगाह के व्यथा भरे

    पलातक समुद्र के वैरागी हृदय को

    आँधी के आवेग से बाँधें।

    धू-धू जलते हुए जीवन के

    वैशाखी प्रांतर में

    समुद्र के मिलन से

    अत: में प्रेरणा के समान स्निग्ध

    सावन का जल बरसेगा।

    विश्वास रक्खो,

    स्वर्ग-बीज मन के अनुरूप

    अविरल सरोवर हो,

    लहरें भी उठा सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 545)
    • रचनाकार : सुनीलकुमार नंदी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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