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सूरदास नहीं थे स्त्री

surdas nahin the stri

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल

सूरदास नहीं थे स्त्री

रोहिणी अग्रवाल

और अधिकरोहिणी अग्रवाल

    सूरदास

    नहीं थे स्त्री!

    थे एकोऽहम की अपौरुषेय सत्ता के गायक!

    और शायद पुजारी भी

    कह दिया नि:शंक निर्द्वंद्व बेधड़क

    ऊधो मन नाहीं दस बीस

    न, स्त्री-संवेदी भी नहीं थे सूर!

    एकोऽहम का अलख जगाता स्वर

    निष्ठा को बनाकर आँख की पुतली

    हो जाता है एक दिन

    एकोऽहम का ठस्स दंभी आतंक

    बहुत आसान है ‘एक’ का हो जाना

    द्वंद्व प्रत्याशा

    सतरंगी सपनों में खुलती पनाहगाहों में

    मछलियों सी मचलती हसरतों को

    थामने की मृदुताएँ

    धूसर जड़ रूठी बैठी सड़क के किसी धूमिल मोड़ पर

    यकबयक छूटकर गुम हो जाने की दुश्चिंताएँ।

    ‘एक’ के मज़बूत हाथ में है

    दो आँखों की रखवाली

    दिशाओं के मुँदे कपाटों वाली निर्जन हवेलियाँ

    घड़ी की टिक-टिक की तरह

    अपने ही काँटों में उलझकर

    चहकने की बाड़ाबंद छटपटाहटें।

    लेकिन

    गोपियाँ तो स्त्रियाँ हैं न!

    एक के ऊपर एक कितने ही मटके रख

    चलती हैं जब पनघट की ओर

    पूरी नदियों का जल

    बेचैन हो जाता है उन मटकों में सिमट आने को

    फिर उतरकर आँखों में

    देह में समा जाता है

    अमृत बनकर अँकुरा जाते हैं सपने

    सूनी हवेलियों के कील जड़ित कपाट

    सीढ़ी बनकर जा मिलते हैं अंतरिक्ष से।

    उस अछोर विस्तार के नीरव कोलाहल में तब

    खुल जाती है पोटली

    कितने-कितने तो मन हैं उस पोटली में

    ऊन के गोलों से फुदकते ख़रगोश-मन

    रेशम की लच्छियों-सी लहराती व्रीड़ाओं से

    उमगते-सिहरते सिंदूरी मन

    धान के सटे-सटे नरम कान से मन।

    हर मन एक दुनिया!

    विशाल!

    बचपन का वह बुद्धू-सा छौना

    फूली-फूली देह में लाल-लाल होंठ सिकोड़

    रो देता था चुहल पर

    तो कैसे हँसती थी मैं

    चटख-चटकीली पीली तितली ज्यों

    मंडरा रही हो सुर्ख़ गुलाब पर।

    और तरुणाई का वह छैला

    नरम रूई-सी उगी रोएँदार मसें…

    कैसी तलब उठती है अब भी

    कि छू लूँ उन्हें

    और मुट्ठी में भर उस बित्ता भर सपाट जंगल को

    ओंठों के ऊपर उगा लूँ अपने

    फिर नथुनों में भर कर मीठी साँस

    धौंकनी की तरह फूँकती रहूँ उसके फेफड़े।

    और ब्याह से पहले का वह लँबू गोरा

    खेल के मैदान में

    गेंद को कालिय नाग-सा मथता

    ब्याह के बाद?

    सखी हौले से थाम लेती है

    झिझक कर सिंदूरी हुई पोटली

    भरा है उसमें फुसफुसाहटों का कलरव

    लुका-छिपी का मदहोश स्वाँग

    तवे पर रोटी पलटते-पलटते

    सिहर गई गरदन की नस

    उत्तप्त होंठों की प्रतीक्षा में

    जैसे फड़क उठता है तन का अंग-प्रत्यंग

    धड़कन के रंग और प्राण के कंठ

    मन की सुरंगों में खुलती अगणित पगडंडियों पर

    सौध बना लिया करते हैं अनगिन

    सौध!

    मंदिर नहीं!

    देवता नहीं बसते जहाँ

    सहचर रहते हैं

    अपलक आँख में आँख डाल

    निहारते स्वयं को

    पूरते युग्म को।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रोहिणी अग्रवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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