रुकिए महाशय
मुझे डराने की कोशिश न करें आप
बहुत ओढ़ लिया सुरक्षा का कवच
अब नहीं सधता मुझसे ये भला-भलापन
तंग आ चुकी हूँ एक-से दिन एक-सी रातों से
मुस्कुरा रहे हैं चारों ओर गेंदे के फूल
मौसम के जाते ही चले जाएँगे और लौटकर आएँगे फिर
अभी कल ही की तो बात है
छत की सीढ़ियों पर जन्मे हैं दो नन्हे कबूतर
आपकी सुनते तो कभी न बनाते वे वहाँ घोंसला
चाँद से कुछ नहीं कहते आप हर दिन बदलता है अपना आकार
देखा नहीं कैसा मरगिल्ला निकला था कल
और आज-कल के एकदम उलट बड़े ठाठ से चमक रहा है वो
तो जनाब इन पर तो कोई बस नहीं चलता आपका
सारी बंदिशें हमारे लिए ही हैं अब धूप को ही देखो
जब खिड़की खोलो तब नहीं आएगी जैसे ही बंद करेंगे खिड़की
वो झट से धमक जाती है और ऐसी आँखमिचौली खेलती है कि बस
चैन से जीने नहीं देते आप किसी को और तो और
मरते आदमी को भी कहाँ बख़्शते हैं आप
ख़ून खौल जाता है उसका आपकी त्राहि-त्राहि पर
लोहा जंग पकड़ता जा रहा है कब से
कभी सोचा
कैसे निजात दिलाई जाए लोहे को ज़ंग से
चुप करिए आप मोज़े बसाते हैं आपके
और आप हैं कि बाज़ नहीं आते जूते उतारने से
क्या कहा इतनी आसानी से नहीं जा सकती मैं...
जी हाँ
वही घर छोड़कर जा रही हूँ बरसों लगे जिसे बनाने में
वो जो छोटा-सा बग़ीचा है न देखा नहीं उसे आज तक आँख भरकर
हसिएँ मत...
कहाँ छोड़ा है इतना सुकून कि हरी घास पर लेट कोई ताके आस-पास
हटिए परे हटिए
ऐसी उधार की समृद्धि से तो तंगहाली अच्छी
तंगहाली और कुछ देती हो न देती हो
ख़ुद से भिड़ने की ताक़त ज़रूर देती है
ये जो समृद्धि का चक्रव्यूह रचा है न आपने
इसी चक्रव्यूह को तार-तार कर देना चाहती हूँ
बात को जितनी बढ़ाएँगे उतनी बढ़ेगी महाशय
तिस पर आपके कुतर्कों के कुतर्क... जाने दीजिए मुझे
नहीं-नहीं आपकी ज़रूरत नहीं लाद लेंगे आप फिर
वही कवच सुरक्षा का
हो सका तो मिलेंगे फिर... फ़िलहाल तो नमस्ते!
- रचनाकार : नीलेश रघुवंशी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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