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सूरज मेरा प्रतिद्वंद्वी नहीं

suraj mera prtidwandwi nahin

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

जीवनानंद पाणि

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सूरज मेरा प्रतिद्वंद्वी नहीं

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    तुम विष्षुवरेखा की वन्या

    उत्ताप की वनहंसी, सूरज की मयूरी

    मैं संतान मेरु का

    उत्तापहीन मसृण बरफ़, चंद्र का चातक।

    बीच में हमारे सारे बसंत की व्याकुल भूमिका

    सारा कंपन, आवेग और इंद्रजाल

    लूटकर शीत का सर्वस्व, पाया है पतझर

    जबकि ग्रीष्म के अयाचित दान में

    तुम पा जाते अनगणित इंद्रधनुष

    तन्मय हो देखता अंग-अंग में

    सूरज के चुंबनों में फल की पक्वता

    कुसुम की पांडुलिपि और

    पूर्णता की वन्या।

    तुमने नहीं देखा मुझे? सूर्यस्मित रूप में!

    नहीं देखा तुमने मेरी दीनता का तपता परिहास?

    जीवन की अकूत क्लांति, पराभव?

    हलकी नींद-सा तुम्हारा हलका मन

    छू पाया मेरी छाती

    स्वप्न-सी हताशा-

    जिसके मधुचक्र में

    संचित जीवन का मधु और अमृत।

    तुम्हारी लघु भैरवी और ठुमरी

    नहीं समझ पायी मेरी मंदाक्रांता मल्हार ध्रुपद।

    तभी तुम मेरे अस्त आकाश में

    भटके मेघ-से अलीक की रंगीनता

    मिलने सूरज संग प्रत्यूष की आलोक तरी में।

    किन्तु मैं देखता आकाश के वैभव में

    तेरे दूर सान्निध्य में

    किसी बेनामी ताप में पिघल

    बरफ़ के आस्त रण में बूंद-बूँद आँसू में।

    मैं समझता जी भर

    स्वप्न बोझिल व्यथा का आनंद

    पूरा पाने की उत्तेजना से कहीं श्रेयस्कर

    अतः सूरज की मयूरी,

    सूरज मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 326)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : जीवनानंद पाणि
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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