सूरज के निकलने का कोण
suraj ke nikalne ka kon
पुवाल की तरह
सड़ गई है व्यवस्था
भीतर ही भीतर
इसमें बोरसी के सुलगते
गोंइठा हो गए सपने
और बिना तेल की जलती
बाती हो गए हम
ठठरी बाज गई देह की
करते-करते काम
न चैन मिला न आराम
अब खेत में उग आए
राड़ों की तरह गड़ता है दिन
और गेहूँ के ठूँठ की तरह
धँसती है रात
ज़िंदगी नहा नहीं पाती
चाँदनी में
भभकती है धीमी बयार के संग
अब भी जीवन को आसान समझना
अपने को भुलावे में रखना है
अब हम उस मुकाम पर आ चुके हैं
जहाँ ज़रूरी हो गया है बदलना
सूरज को अपने निकलने का कोण।
- रचनाकार : जितेंद्र श्रीवास्तव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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