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सूने सपाट सन्नाटे में

sune sapat sannate mein

श्रीराम वर्मा

श्रीराम वर्मा

सूने सपाट सन्नाटे में

श्रीराम वर्मा

और अधिकश्रीराम वर्मा

    रात क्या है एक खटारा के सिवा,

    जिसके अंजर-पंजर कभी के ढीले हो गए हैं

    और जो गली के मुँह में आकर फँस गई है।

    पंचर अँधेरे से हवा की निकलती साँय-साँय के सिवा

    कहीं कुछ भी नहीं।

    महज़ टकराकर चूर-चूर

    ढनके हुए लोग :

    (शराब की फिंकी, बेकाम बोतलें)

    पानी के बुलबुले।

    ठहरी हुई आँख-सा

    सन्नाटा

    एक थिराव।

    एक रुकाव।

    एक यूँ ही सा पड़ाव।

    एक समाधि :

    गंतव्य की इतिश्री

    यह रात गहरी।

    काँपता हुआ

    अंधी रात का वैधव्य।

    स्वयं ठंडक ओढ़े

    सिल रहा ओस की सुई से।

    मन की भुरभुरी रेत।

    शायद कल कोई सूर्य

    आए और विदुम की मुद्रा दे।

    इसी आशा को तापता

    जी रहा वैधव्य अंधी रात का।

    ठहरी हुई रात।

    विजन में धुआँ देती।

    रुकी हुई रेल है।

    और हम-तुम

    बिछी हुई पटरियाँ हैं।

    सूने सपाट सन्नाटे में।

    ...जो टूट गई अभी-अभी (कमर-सी)

    कच्ची वह अपनी ही नींद थी।

    ...जो कुचल गया अभी-अभी (पिल्ले-सा)

    अधूरा वह अपना ही सपना था।

    जाने दो।

    ये रोज़-रोज़ की बातें हैं।

    आख़िर पटरियाँ चीत्कार की अभ्यस्त होती हैं।

    जाने दो।

    हमारे बिछे रहने में फ़र्क़ (?) नहीं आएगा।

    समय

    एक भागता हुँकड़ता भैंसा है,

    जिसकी पीठ पर जलते टायर की

    काली, तल्ख़ चिपचिपाहट यह रात है।

    रोककर

    रो-रोकर

    रात

    बदल देती है उसे :

    अंधा कुआँ बन

    अंधी गली में

    पसर जाता है

    समय—

    थके हुए पति-पत्नी

    पड़े हुए निढाल पास-पास।

    बेख़बर दोनों घर से, घर-बार से,

    एक दूसरे के सुख-दुख से,

    स्वयं अपने से।

    अपने तक से भी बेख़बर इतने

    कि इतने थके हुए

    कि पड़े हुए निढाल।

    कोई साध, कोई आस।

    देह के गलियारे

    चलती है लड़खड़ाती हुई साँऽऽस।

    टूटी हुई नल की टोंटी से

    अभी-अभी पत्थर पर

    गिरी एक बूँद

    हुई टप्...

    (टप्...)

    चौंक गई उमा।

    हाथ स्वयं चले गए नाड़ी तक शंकर की।

    कहाँ-कहाँ भटका मन

    सिंदूरी क्षण से धुलती हुई सीमांत-वेला तक।

    (आह एक ऊपर)

    एक आह नीचे!)

    टूटी हुई टोंटी से

    तभी

    तभी पत्थर पर

    गिरी पुन: एक बूँद।

    पुनः हुई

    टप्...

    (टप्...)

    दिखें एकाध तारे।

    चाँदनी बन जाए अपनी

    मसहरी।

    कुछ नहीं तो हवा ही मिल जाए।

    पूरितगंध (भली या बुरी!)

    कुछ उमस से मिले राहत।

    या दिखे आकाश का विस्तार—

    (न सही नीला। चिमनियों के धुओं से

    कालिखपुता ही!)

    खुलेपन का बोध हो।

    खुलेपन का बोध तो हो।

    सुबह से हठयोग करते

    स्वयं चुकने लगे।

    चीत्कारती कुल्हिया सरीखी दीठ लेकर

    सुरंगों-से स्वयं आए यहाँ

    किंतु यह क्या?

    बूँद नभ की!

    चलो। चलें।

    खुलेपन का बोध

    अपने पसीने की याद भर है!

    जैसे नीलकंठ अक्सर टोंट मार देता है,

    वैसे ही चिढ़ाता हुआ गुज़र गया

    ऊपर से घरघराता लाल-पीली-हरी

    बत्तियोंवाला जहाज़।

    याद आई आटे की चिड़िया,

    गोलियाँ रंगीन चमकीं!

    याद आईं तारे देख नज़र उतारती

    माँ की उद्विग्न आँखें :

    चटचट लपट

    और बुरादे का गूँजता धुआँ :

    स्पुतनिक ज्यों उड़ा—

    ‘पापा, चलो चढ़कर चाँद की सैर करें।

    यहाँ सूखा चना तक नहीं मिलता।

    वहाँ परियाँ बाँटेंगी अँखुवाया।'

    अँधेरे कमरे में बत्ती बुझा

    खूसट माता-पिता

    लिपटे हुए, खुसुर-पुसुर,

    साँस के सातों सुर

    तैरते अँधेरे में।

    बग़ल वाले कमरे में

    लेटी है अनब्याही

    जवान, कुँआरी केतकी

    (प्रियंवदा-अनसूया से बड़ी!)

    करवटें लेती,

    मोड़ती-मरोड़ती

    बार-बार अपने को

    दबोचती, नोंचती

    बकोटती

    (अँधेरे को!)

    डंकमारी कुतिया

    छटपटाए, चिल्लाए

    कतकी हूक लिए।

    केतकी करवटें लेती

    बकोटती अँधेरे को

    चुपचाप सातों सुर सहती

    ऐंठकर रह जाती।

    सभी सो गए।

    रोम-रोम बन गए साँस।

    नलकंठी जड़ आँगन को भी

    नेक तनिक अवकाश मिल गया

    सो लेने का,

    जी भर साँसें से लेने का।

    किंतु नहीं अब तक गिन पाया

    ‘घीसा' अपनी आह।

    पाँव दबाए मालिक के

    सीढ़ी से ऊपर-नीचे फैले

    एक बज गए। फिर भी

    ककटे बर्तन घिसना शेष।

    यद्यपि आँखें नींद-सिंधु में,

    अंग-अंग में दर्द भरा नि:शेष।

    उसकी साँसें इतनी सस्ती

    सेती हैं बस जूठन की ही आस।

    खुलापन चाहिए आँधी-तूफ़ान को सदैव।

    (जैसे आधी-आधी रातों में चौराहों पर

    पुलिस तक नहीं होती। और शांत सूनी सड़कों से

    आसमान तक लदी ट्रकें गुज़र जाती हैं बिना दिए-लिए

    कुछ भी। वैसा—)

    चाहिए खुलापन आँधी को, तूफ़ान को सदैव।

    आते-आते गई आँधी

    सँकरी गली में बँधी-बँधी

    गया तूफ़ान आते-आते :

    उड़ी धूल आँख में

    पड़ी।

    किरकिराई।

    एक सूखा पत्ता खड़का,

    उड़कर चाँटे-सा लगा,

    लगा,

    एक अंधा कुत्ता

    सन्नाटे को काटता

    भूँक उठा सहसा

    सोया रहा चौकीदार पास ही

    मन में गुहारता—

    जागते रहो—

    अंधकार के दावेदार,

    संसृति में रेंगते

    विचरते रहो—

    तभी देखा :

    गुप्तचर बिजलियों ने छील दिया

    नभ छाए संपूर्ण रूद्र मेघमंडल को।

    सोया रहा चौकीदार—

    हरी दूब पर बिछ गए बेकार रावण,

    हरे पत्ते सँजोते मुँहफट कुबेर,

    ताश के पत्ते फेंटते फ़ाक़ामस्त युधिष्ठिर

    नाल गाड़े पड़े रहे।

    आँधी-तूफ़ान ने

    झुका दीं आसमान की डालें

    और बिजलियों के चमकते हथियार

    बादलों के तरकस और म्यान सहित

    धूल की पोटली में लपेट कर टाँग दिया।

    प्रकाश यह कैसा है,

    लगता है चंद्रहास।

    छाया तले छिपकली

    करती शिकार

    भुनगों का।

    प्रतिबिंबजीवित चकोरी

    क्षुधातुर

    सिर धुन-धुन रह जाती।

    अंगार भी

    बन जाता

    कैसे—

    दीवार!

    प्रकाश यह कैसा है,

    कैसे हो जाता है चंद्रहास!

    जीभ चटकारती

    गए रात

    आँगन में पूसी :

    चूल्हे पर दूध तो कभी उबला नहीं,

    गगन से आँगन तक उबल-उबल

    गिर रही है चारों ओर चाँदनी।

    झाग हैं, फेन हैं,

    बड़े-बड़े बुलबुले हैं बादल

    जैसे कि

    आसमान भी एक बहती नदी है :

    तैर रही है एक औंधी खोपड़ी

    स्वर्गवासी जर्जर (उडु-) पति की

    गंदे बिस्तर पर सिसक रही।

    कब से कमसिन

    एक लय संगमर्मर की।

    बंद हैं द्वार

    मंदिर के।

    शंखध्वनि-दीपशिखा,

    सब पर कड़ा पहरा है।

    नींद का।

    झाड़ से लिपटी हुई चाँदनी

    बना रही है नक़्शा

    ताजमहलों का।

    ('सत्ती' का चाकू

    उसकी ही छाती पर

    नाप रहा है दो पर्वत की दूरी।)

    नीचे गहरी खाईं में

    पत्थर के देवता

    मौन हैं। प्रसन्न हैं। चकित हैं

    कि फूल चढ़ते हैं,

    बेच दिए जाते हैं।

    —मुरझाकर बहते नहीं।

    (शंका हो

    इसलिए बहती हैं

    मंदिर की नालियों से

    नन्हीं अगर-तगर की

    कभी-कभी झाइयाँ!)

    बंद हैं द्वार।

    रातरानी महकती है।

    पत्थर के देवता प्रसन्न हैं :

    संधिनी प्रणाली पर

    गड़ा है त्रिशूल

    हरसिंगार!

    कल्मष-प्रवाह में

    कैसा मौन मधु टपकता है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : गली का परिवेश (पृष्ठ 67)
    • रचनाकार : श्रीराम वर्मा
    • प्रकाशन : पीतांबर प्रकाशन
    • संस्करण : 2000

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