लालटेन की कमज़ोर रोशनी की तरह फैल जाती है सिमटने से पहले धूप
पुलिस लाइन का मैदान क़वायद के बाद सूना हो चुका होता है
कचहरी के पीछे सूखी घास में वह सिर्फ़ हवा की सरसराहट है
पीछे छूट गए दो-तीन ही जानवर लौटते आ रहे होते हैं
बिना बैलगाड़ी वाले गोंड इतवारी बाज़ार से सौदे की गठरी उठाए
परतला या चंदनगाँव की तरफ़ वापस जा रहे हैं
यही समय है जब एक मास्टर का, एक वकील का, एक डॉक्टर का और
एक साइकिलवाले सेठ का
चार लड़के दसवीं क्लास के निकलते हैं घूमने के लिए
डॉक्टर और सेठ के लड़कों के साथ एक-एक बहन भी है लगभग हमउम्र
चारों पिता आश्वस्त हैं अपने लड़कों के दोस्तों से
इन लड़कों की आँखों में डर है, अदब है, पढ़ने में अच्छे हैं
बड़ों के घर में आते ही वे अच्छा अब जाते हैं कहकर चले जाते हैं
और क्या चाहिए
चार चौदह-पंद्रह बरस के लड़के और दो इससे कुछ ही छोटी लड़कियाँ
बाज़ारवाली सड़क से गुज़रकर टाउन हॉल होते हुए
कचहरी के पीछे निकल आए हैं जहाँ शहर ख़त्म हो चुका है
दाईं ओर जेल का बग़ीचा है जिसके छोर पर वह पेड़ है
जिसके जब फूल आते हैं तो इतने बैंगनी होते हैं
कि वह सबसे अजब ही लगता है और सामने
वह चक्करदार सड़क है जो वापस उन्हें छोड़ देगी शहर में
कभी छहों साथ-साथ और कभी दो लड़कियाँ और चार लड़के
चले जा रहे हैं अभी उनमें बातचीत हो रही थी
स्कूल खुलने की नागपुर जाने की उपन्यास पढ़ना चाहिए या नहीं की
प्रकाश टॉक़ीज में लगने वाली पिक्चर की
आदमी को आगे चलकर क्या बनना चाहिए उसकी
थोड़ा अँधेरा हो चला है सड़क पर एक-दो छायाएँ ही और हैं
अकारण हँसने सामने पत्थर फेंकने या दौड़ जाने पिछड़ जाने का अंत हो
गया है
जो दो-तीन गानों के मुखड़े उठाए गए थे
वे बाद की संकोचशील पंक्तियों को गुनगुनाकर
या आगे याद नहीं आ रहा है कहकर छोड़ दिए गए
और अब एक उल्लास के बाद की चुप्पी है जिसमें
रेत पर कैन्वस के जूतों की श् श् भर है
गर्मियाँ अभी आई ही हैं और हवा मे बड़ी मेंहदी के फूलों की गंध है
जो सिविल लाइन के बँगलों के हरे घेरों से उठ रही है
कि अचानक जेल के बग़ीचे से एक कोयल बोलती है
और लड़कियाँ कह उठती हैं अहा कोयल कितना अच्छा बोली
इस गर्मी में पहली बार सुना
कोयल की बोली पर आम सहमति है
लेकिन एक लड़का चुप है और उससे पूछा जाता है
मुझे नहीं अच्छा लगता कोयल का इस वक़्त बोलना वह कहता है
अजीब हो तुम लड़के कहते हैं
एक लड़की पूछती है अँधेरे में ग़ौर से उसे देखने की कोशिश करती हुई
क्यों अच्छा नहीं लगता
पता नहीं क्यों—वह जैसे अपने-आपको समझाता हुआ कहता है—
सब कुछ इतना चुपचाप है शाम हो चुकी है
फिर क्या ज़रूरत है कि कोयल भी परेशान करे—
बहुत ज़्यादा और बेमतलब कह दिया यह जानकर चुप हो जाता है
अब सब हो गए हैं बहुत ख़ामोश उसके कहे से
अलग-अलग सोच में पड़े हुए और धुँधला-सा कुछ देखते हुए
और वह अपने संकोच में डूबा हुआ विशेषतः लड़कियों की ओर देखते
झिझकता
टॉर्च जलाने लायक़ अँधेरा हो चुका है एक पीला हिलता डुलता वृत्त अब
उनके सामने है जिसकी दिशा में वे चले जा रहे हैं वापस
एक साथ लेकिन हर एक कुछ अलग-अलग
एकाध साइकिल की खिन्न घंटी पर रास्ता देते हुए
कल फिर लौंटेगे और उसके बाद भी और पूरी गर्मियों भर
वही रास्ता होगा वही लालटेन की धूप वाला मैदान
वही इक्का-दुक्का लौटते हुए जानवर और गोंड
वही बैंगनी पेड़ और हवा में बड़ी मेंहदी के फूलों की गंध
उसके बाद पूरी गर्मियों भले ही कोयल उस समय नहीं बोलेगी
पर रोज़ उस जगह पहुँचकर वे उसे सुनेंगे अलग-अलग
और सिर नीचा या दूसरी तरफ़ किए देखेंगे कि क्या उन्होंने भी सुना
उनके घूमने में चुप्पी फैलती जाएगी सोख़्ते पर स्याही की तरह
धीरे-धीरे एक-एक करके उन्हें शाम को दूसरे काम याद आने लगेंगे
गर्मियाँ भी बीत जाएँगी इसलिए घूमने जाने का स्वाभाविक अंत हो जाएगा
उनकी आवाज़ें बदल जाएँगी जिसमें वे अपनी पसंद के गाने अकेले में गाएँगे
कभी-कभी अकेले निकलेंगे घूमने और अचानक दूसरे के मिलने पर ही साथ
ख़ामोश लौटेंगे
न देखते हुए कि लड़कियाँ उनकी बहनें या दोस्तों की बहनें
उनके आने पर दरवाज़े से सिमट कर पीछे हट जाती हैं
शाम को सरसराते मैदान पर जैसे गर्मी की आख़िरी दिनों की पीली धूप।
- पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 20)
- रचनाकार : विष्णु खरे
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 1998
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.