स्मृति से, किरणों की तरह उतरतीं शब्दों की पंक्तियाँ
टेबल पर पैंतालीस डिग्री आईने की तरह
अगर तुम परावर्तित कर पाते काग़ज़ों पर हू-ब-हू
तो अन्य लोगों की तरह
तुम भी मान लिए जाते प्रतिभाशाली
अगर रटकर झूठ को उतार देते हू-ब-हू
जो इतिहास के संदिग्ध तथ्यों के
तुम भी बन जाते गायक या प्रवक्ता, कहलाते मेधावी
दूसरों की प्रभुता और मुनाफ़े के लिए
हो जाते ऊर्जा और पदार्थ के रहस्यों के मामूली जानकार
उतरन की तरह दर्शन और अध्यात्म की पोशाकें
सजा देते संग्रहालयों में; बन जाते उनके धाराप्रवाह वक्ता
तो मान लिए जाते प्रबुद्ध और प्रज्ञावान
ज्ञान के खँडहरों में विचरते प्रेत की तरह
पुरावशेषों और ध्वंस के चिह्नों से लगाते अटकलें
या फिर मरे हुए अलंकारों
और निचुड़े हुए रसों के नपनाघटों से
नापते रहते छंद की सरंचना और बनावट
निरंकुश सत्ता के खेल
सत्ताधीशों की प्रजावत्सलता
उनके कलाव्यसन और विद्यानुराग
हिंसक, बर्बर, लुटेरों और हत्यारों का वहशी इतिहास
तुम्हें होता याद मुँहज़ुबानी
या व्यवस्था में संरक्षित
नफ़रत की पुरातन दीवारों पर
तुम चिपकाते शोधपत्र
तो तुम्हारी विद्वता स्वीकार कर ली जाती
तुम्हारी ग़रीबी ने खोले हैं जीवन के रहस्य
तुम्हारी अरुचि ही रही, तुम्हारा नकार, हरेक कपट और झूठ से
हालाँकि पहचाने नहीं
अपने आस-पास मणियों की तरह बिखरे सत्य
तुम्हारे विद्रोह को मिली नहीं दिशा
टुच्चे सुखों की मरीचिका पूरे जीवन
तुम्हें भी भटकाती रही चूसने और निचोड़ने की शर्त पर
एक तुम ही नहीं अनोखे इस खेल में
और भी हुए हैं तुम्हारी तरह
जिनके उत्तीर्ण होने से
संसार और मानवता बनी रहती कुरूप
अंधकार हो जाता सघन और अभेद
उनके विद्रोह ने ख़ुद गढ़े अपने हथियार
उन्हें बनाया नुकीला और धारदार
और एक दिन उन्होंने ढहा दिए, छद्म प्रतिभा के दुर्ग
और उस पर क़ाबिज़ आभिजात्य को कर दिया नंगा
आज तुम्हें अफ़ीम की तरह किसने मुहैया कराया है रंगीन लोक
मायावी चित्रपट, यौन विकृतियों के संस्करण?
हर बार अकेला पड़ जाने पर
घिरती उदासी और लाचारी को
आख़िर किसने दे दी नशे की लत और ग़ुलामी?
अपने ही हाथों ख़ुद को नष्ट करते
अगर तुम इसे जान पाते
तो कब का पहचान लेते दुश्मन का चेहरा
कब से तुम्हारी घृणा और नफ़रत लेने लगती धार
आज तब तुमसे पहले
तुम्हारी नींद हो चुकी है दर-ब-दर
और विद्यालय के मैदान
तुम्हारे सपनों के क़ब्रिस्तान बन चुके हैं
तुम्हारे उमंग के आकाश से बरस रहा है ख़ून
ऐसे में तुम्हें
अपनी घृणा और प्रतिकार में जागना चाहिए
तुम्हारे भीतर आकार ले रही हताशा को
अपने ही संकल्प से काट देना चाहिए
तुम्हें पुनर्नवा होकर
रेल की पटरियों, नदी, कुओं, तालाबों
पंखों, छतों, मुँडेरों और डालियों को भूल जाना चाहिए
तुम्हें नशा, ज़हर और आग में
नहीं देखना चाहिए अपना सूर्यास्त
वरना इस तरह अपनी पराजय लिखकर जाने से
तुम भुला दिए जाओगे, एक कायर की तरह
तुम कलंकित ही करोगे अपनी ग़रीबी और वर्ग को
अपने अभावों और संघर्षों पर
तुम तोहमत ही लगा जाओगे
तुम्हारा अंत, दुश्मनों का जश्न होगा
जो बनेगा तुम्हारे घर का मातम और अभाव
फ़िलवक़्त तुम्हें अपनी गुम पतंगें याद करना चाहिए
झुक आए आकाश में
जैसे पिता की छाया उन्हें लौटा रही हो
ऊबड़-खाबड़ धरती को
माँ-बाप की घट्ठेदार हथेलियों की तरह याद करना चाहिए
अपने हाथों से रोपे गए पौधों पर आ चुके
फूलों और फलों को याद करना चाहिए
अपनी रूखी रोटी और लोटा भर पानी को
अमृत से अधिक पवित्र जानना चाहिए
रोटी ओर पानी के मेल से बने
सपनों को देखते-देखते
अगले सफ़र के ख़याल में सो जाना चाहिए
अब जबकि पटरियाँ सूनी पड़ी हैं
सूनी पड़ी हैं नदी, कुओं और तालाबों की गोद
पंखों, छतों, मुँडेरों और डालियों पर
सिर्फ़ परिंदे ले रहे हैं नींद
नशा, ज़हर और आग के द्वारों पर सन्नाटा है
और जीवन उन पर भेज चुका है लानत
ऐसे में तुम्हें अपने ही लौटने की प्रतीक्षा में सो जाना चाहिए
सो जाओ कि
हवा, धूप और बारिश
चट्टानों से लिपटते और सहलाने का
अभिनय करती उन्हें काट रही है
सो जाओ कि
जीवन ने तुम्हें सफल बनाने, परख लिया है
सो जाओ कि
छपे अंक तुम्हारे पदचिह्नों से
काफ़ी पीछे छूट चुके हैं।
- पुस्तक : एक अनाम कवि की कविताएँ (पृष्ठ 130)
- संपादक : दूधनाथ सिंह
- रचनाकार : अनाम कवि
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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