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स्पृहणीय चंद्रमा

sprihanaiy chandrma

मदन वात्स्यायन

मदन वात्स्यायन

स्पृहणीय चंद्रमा

मदन वात्स्यायन

और अधिकमदन वात्स्यायन

    तुम्हारे पीछे ज़मीन से आसमान तक के फूलों के अँगार धधक रहे हैं,

    तुम्हारे सिर के ऊपर गुलमोहर की आग की लपटें हैं,

    तुम्हारे बाएँ हैं पलाश के शोले

    और दाहिने अशोक के स्फुलिंग।

    इस व्यापक दाह के बीच

    तपती पृथ्वी और जलते आकाश की संधि पर ग्रीष्म की

    पूर्णिमा के शीतल चाँद की तरह

    तुम उदय हो गईं प्रियतमे!

    तुम्हारा मुख किंचित् अरुण है,

    तुम्हारे गले में उड़हुल की आजानु रक्त मुंडमाला है

    तुम्हारी माँग में है संध्या के प्रतिबिंब से लोहित गंगा सिंदूर-रेखा,

    तुम्हारे ललाट पर गोल लाल बिंदा जल रहा है।

    पुरुष रूप में मदन को जला कर

    क्या तुम अर्द्धनारीश्वर

    अब स्त्री रूप में उसे जुड़ाने आई हो?

    तीव्र ब्रात—

    लाल बूटों वाली हरी साड़ी में तुझे लवंग लता को अपना

    प्रतिस्पर्धी समझ,

    जला डालने को मानो अनंग दशों दिशाओं में आँच सुलगा रहा है।

    अरे, पर तुम तो मधुर भाव-भंगिमा से इन शोलों को अपने बालों में

    सजा रही हो।

    अहा, किसलय से ओंठों, से किस लय से तुम स्वर प्रसार कर रही हो!

    नीले बूटों वाले हरे ब्लाउज में तुम अपराजिता

    इस अग्नि-परीक्षा में विहँस रही हो।

    गुलमोहर के तले

    जलते, अधजले, राख हुए अंगारों पर

    चलती तुम मेरे पास रही हो

    तप्त भूमि पर पद-चाप की याद कर

    या तुम्हारे बंकिम ओंठों से चले नावक के तीरों से आहत हो-हो

    या तुम्हारी चाँदनी की शीतलता से,

    मैं सिहर-सिहर उठता हूँ, सिहर-सिहर उठता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शुक्रतारा (पृष्ठ 25)
    • रचनाकार : मदन वात्स्यायन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2006

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