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स्पंदन

spandan

वाज़दा ख़ान

वाज़दा ख़ान

स्पंदन

वाज़दा ख़ान

और अधिकवाज़दा ख़ान

    हम खड़े हैं एक ऐसी अदृश्य ज़मीन पर

    जिसके एक हिस्से में पानी है, एक हिस्से में

    रेत है और एक हिस्से में अनंत कालों का गाढ़ापन है

    यह बिल्कुल उस नाटक के मंच जैसा है जिस पर

    बोलते हुए पात्र के ऊपर प्रकाश का घेरा है

    ठीक उसी के बग़ल में धुँधला स्लेटी प्रकाश

    अपना अस्तित्व जमाए है और पात्र के

    या मंच के तीसरे हिस्से में गाढ़ा

    अँधेरा है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि

    जहाँ अँधेरा है वहाँ कुछ नहीं

    हमें उतरना होगा अँधेरे में

    उतना ही जीवन है वहाँ जितना प्रकाश के गोल

    घेरे में खड़े, बोलते अभिनय करते पात्र में

    क्रमश:

    मेरी बात पर यक़ीन नहीं है तो

    समंदर मे देख लो कितना अँधेरा है

    फिर भी उसमें कितनी मछलियाँ हैं

    जिनकी आँखें चमकती हैं उन्हीं अँधेरों में

    चाँद-सी, जो नियत समय में घटता और बढ़ता है

    और डूबता भी है समंदर के अँधेरे में

    ठीक बिल्कुल यही बात, सृष्टि के चित्रों के

    चित्रों में है, जहाँ से लगते हैं मगर उनमें साँसें हैं

    तुम अपना कान सटाओ उनमें

    सिर्फ़ आँखों से देखो मत

    इक ख़ास क़िस्म का स्पंदन सुनाई देगा

    बिल्कुल वैसा जैसा जब तुम

    किसी हथेली को छूते हो

    तब दो हथेलियों के बीच का स्पंदन

    हमें दिखाई देने लगता है संपूर्ण सृष्टि में

    वही स्पंदन चित्रों का रंग है

    वही स्पंदन कविता के शब्द हैं

    वही स्पंदन शब्द ध्वनि हैं

    वही स्पंदन जो दो सृष्टियों के बीच

    हमेशा से रवाँ है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वाज़दा ख़ान
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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