कमलेश्वर की कहानी ‘खोई हुई दिशाएँ’ पढ़ने के बाद
मेरे दिशाएँ खो गई हैं
ठीक वैसे
जैसे चंदन की खोई थीं कनॉट प्लेस के बीच
जैसे बंटी की खोई थीं
जैसे खोई थीं मोहन राकेश के पाशी की
यूँ तो सभी दिशाओं के केंद्र में होता है घर
जहाँ मिलती हैं दिशाएँ एक दूसरे से
लेकिन मेरे घर की ओर जाती हुई हर दिशा
भटक जाती है ख़ुद अपना ही रास्ता
मेरे घर में वह सारी ख़ूबी थी जो ‘नई कहानी’ में हुआ करती थी
मेरे पिता मोहन राकेश की कहानियों के मर्द जैसे थे
लेकिन माँ उन कहानियों-सी नहीं थी
जिन्हें पढ़ा या लिखा गया है अभी तक
उन्हें देखकर हमेशा मेरे कानों में एक वाक्य गूँजता—
मनुष्य समाज में स्वतंत्र है समाज से नहीं…
यह सच है कि समय दिशाएँ बदलता है
और सच यह भी है कि जो सच है वही सच नहीं है
मेरे घर के दरवाज़े अब उस शहर के बीच खुलते हैं
जो सबको अजनबियों की तरह जानता है
जिसकी सहर में जलन और शाम में नमक है
जिसके दाँत परत्व को चबा कर टूट चुके हैं
और जिसके चेहरे पर अवसाद से अधिक कुछ नहीं लिखा
मैं हर दोराहे, तिराहे, हर चौराहे पर खोजता हूँ ऐसी दिशा
जहाँ मुझे मेरे होने का पता मिले
लेकिन हर राह की भुजाएँ ऐसी राहों को थामे हैं
जिन्हें अपने पते का भी नहीं पता
हम सब की दिशाएँ
कभी न कभी
कहीं न कहीं
खो जाती हैं
और हम ढूँढ़ते रहते हैं
वह ‘निर्मला’ जो पूछ ले—
क्या हुआ?
- रचनाकार : अंजुम शर्मा
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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