उनके ख़याल दक़ियानूसी नहीं थे
इतना ज़रूर था कि उन्हें वे तरक़ीबें पसंद नहीं थीं
जिनमें दूसरों को किसी भी तरह ज़मींदोज़ कर
केवल और केवल अपने बारे में ही सोचने की परंपरा थी
उनके बारे में कहा जाता था
कि वे इतिहास के पन्नों में दफ़्न हो गए उन चुनिंदा लोगों में से हैं
जो फिर-फिर ज़िंदा हो उठते हैं
उस मशाल को आगे बढ़ाने के लिए
जिससे हमेशा एक बेहतर दुनिया की प्यारी-सी तस्वीर दिखाई पड़ती है
वे उस हरेठा की तरह थे
जिसे नेनुआ, लौकी, कुम्हड़ा की बेलें छानी पर चढ़ाने के लिए
किसी भी जगह खड़ा किया जा सकता था
वे हर तरफ़ उगी हुई उस घास की तरह थे
जो बार-बार उखाड़े जाने के बावजूद
हरियाली की रवानगी के साथ
उगने का हठ कभी नहीं छोड़ती
उनकी साफ़ बोलने की आदतों से उनके अपने भी अक्सर आहत हो जाते
किसी ने भी नहीं पाया उन्हें किसी और को भरमाते
अलग बात है यह कि वे जब भी किसी की मदद के लिए हाथ बढ़ाते
अक्सर ठगे जाते
फिर भी किसी ने नहीं देखा उन्हें किसी को ठगते
कविता पढ़ने के पहले वे
कवि से रू-ब-रू होने की कोशिशें ज़रूर करते
उनके लिए यह इसलिए भी ज़रूरी था
कि कवि के लिए दुनिया के मन में सम्मान बचा रहे
वे रह-रह कर ऐसे सवाल पूछते
जो देखने में या तो बचकाने या फिर बहुत साधारण लगते
लेकिन जिनका जवाब बहुधा दुष्कर ही होता
कई बार वे अप्रत्याशित रूप से जीती बाज़ी को ही हार जाते
और मुस्कुराते हुए कहते
पराजित होना भी हममें से कितनों को आता है
उन्होंने लीक से अलग हट कर चुना था अपना गाँव
जहाँ पर किसी नवहे को खोजना गुलर का फूल खोजना था
उनके लिए पद-प्रतिष्ठा से बड़े थे माता-पिता
जिनके सहारे की एकमात्र लाठी वे ही थे
वे सुनते सबकी थे, लेकिन करते अपनी थे
वे किसी भी तरह बचा लेना चाहते थे लोरियाँ
क्योंकि माँ के पहलू में उन्होंने
सँजो रखा था आज भी अनेक को
उनके राग-रंग के साथ
लोग-बाग़ उन्हें पगलेट भी कहते थे
जो ज़माने की विपरीत धारा में बहने की सनक ठान बैठा था
जहाँ खोने के अलावा पाने के लिए कुछ भी नहीं था
अक्सर वे लोगों की बराबरी के बारे में बातें करते
जिनके बारे में हर जगह कहा तो बहुत गया
लेकिन अमल करने से हमेशा बचा गया
वे सरसों के फूल थे
वे उड़ती हुई धूल थे
वे मन में चुभे हुए शूल थे
वे लगातार लुप्त होती जा रहीं लोक-कथाएँ थे
वे ख़त्म न होने वाली व्यथाएँ थे
वे समस्याएँ नहीं थे
फिर भी लोगों को उनसे बड़ी समस्याएँ थीं
वे मटियामेट होती जा रहीं वे बोलियाँ थे
जो जब तलक ज़िंदा रहीं सुनने में गवारूँ लगीं
लेकिन जिनमें अपनत्व की वह मिठास घुली होती
जिसे बोलने वाले ही समझ पाते
वे अब तलक अप्राप्य रह गए हक़ थे
गँवई भाषा में कहें तो वे सोझबक थे
हर ज़माने में पाए जाने वाले
हर जमाने में उपहास उड़ाए जाने वाले
वे वर्तमान में अँट न पाने वाले
अतीत की वह अंठिली थे
जिसे चूस कर छोड़ दिया था स्वाद के रसिकों ने
और जो ज़मीन में लिथड़कर भी उग आए थे अमोला की शक्ल में
जिसको उखाड़कर कोई पिपिहरी बजा रहा था
तो कोई अपने दरवाज़े पर बंदनवार सजा रहा था
- रचनाकार : संतोष कुमार चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.