एक-एक कर वे चली गई थीं
दूसरे घाट दूसरे खूँटे से बँध गई थीं
उनके आँचल की हवा उन्हीं के साथ चली गई थीं
बहुत दूर किसी देश
नेह की बाती एक घर से उठकर
किसी दूसरे घर के कोने में
साग खोंटने की हंसुली आँगन के ताखे पर रखकर
धनिया की चटनी पीसने की सिलवट
एक कोने में छोड़
ककहरा की किताबें
और पुरानी फटी कॉपियों में बनी
मीरा और बाई लछमी के अधूरे चित्र
छोड़ गई थीं वे हमारे भरोसे
उन्हें अब कुछ भी बनना न था
एक ऐसे देश और समय में पैदा हुई थीं वे
जहाँ उनके होने से कंधा झुक जाता था
कई बार पगड़ी दाँव पर लग जाती थी
फिर भी वे हुई थीं पैदा
पिता कहते : अपना भाग्य लेकर आई थीं साथ
इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य
सबका होकर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही
उन्हें अपने हिस्से के भाग्य के साथ
उन्हें कुछ नहीं बनना था इस अभागे देश में
उनके कुछ भी बनने पर बहुत पुरानी क़ब्रों के
भूतों के पहरे थे
कई मिथकों के बड़े और भारी ताले
छोड़ गई थीं वे तेल की कटोरियाँ
रसोईघर में अपने खुरदरे हाथों के निशान
चौकी-बेलना-तसली-कठौती-करछुल-छोलनी
बचपन से उन्हीं से प्यार करना
सिखाया था माँ ने
उनके पास अपना कुछ नहीं था
सिवाय लड़की ज़ात के उलाहने के
फिर भी ख़ूब हँसती थीं वे
कभी-कभी तो इतने ज़ोर-ज़ोर से
कि उनके हँसने पर भी लग जाती थी पाबंदी
रसोई में आग और धुएँ के बीच तपती थीं वे
और उमगती हुई हमारे छीपे में परोसती थीं रोटियाँ
तैयार करती थीं अपने हाथों से हमें स्कूल के लिए
बिना किसी अफ़सोस बिना किसी शिकन
क्या उन्हें स्कूल जाने का मन नहीं करता था
अपने घर की दहलीज़ों से दूर वे चली गई थीं
एक ऐसी दुनिया में जहाँ से लौट पाना
इस देश में कभी नहीं रहा आसान
साल के एक दिन
उनकी भेजी हुई राखियाँ आती थीं
या अगर कभी आ गईं वे ख़ुद
तो जैसे उल्टे पाँव लौट जाने के लिए ही आती थीं
मैं हर बार उनके चेहरे पर वह पहले का रंग
चाहता था देखना
वह हँसी देखना चाहता था
वह ख़ूब-ख़ूब हँसी जिसमें
पूरी दुनिया के लिए जगह होती थी
लेकिन हर बार उनके झुराए चेहरे पर
जब उभरती थी कोई छूटी हुई मुस्कान
तब मुझे दिखते थे सैकड़ों सवालों के रेशे
जिनके उत्तर मेरे पास नहीं थे
प्रश्नों को लिए गई थीं वे साथ
एक दिन रोते-कलपते
घर के किसी कोने में मुझे अकेले छोड़
ख़ुद के आँसू से बेपरवाह
मेरी भीगी आँखों को आँचल से पोंछतीं
बहनें प्रश्नों को लिए साथ लौटती थीं अपने संसार में
हमें अकेला छोड़
उस समय की याद दिलातीं
जब ख़ूब हँसती थीं वे
और हमारी हँसी के लिए कुछ भी करने को रहती थीं तैयार
एक ऐसे समय की याद दिलातीं जब पूरी दुनिया
नफ़रत से भरी हुई थी
और बहनों ने सिखाया था प्यार करना
और ख़ूब-ख़ूब हँसना
बहनें पृथ्वी थीं
जिनके हक़ में मुझे लड़नी थी एक अंतहीन लड़ाई
एक दिन जीत जाने के विश्वास
और संकल्प के साथ
और एक दिन ख़ूब-ख़ूब हँसना था
सिर्फ़ उनके लिए
और उनके समर्थन में।
- रचनाकार : विमलेश त्रिपाठी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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