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सिगरेट पीता वृद्ध

sigret pita vriddh

मनोज मल्हार

मनोज मल्हार

सिगरेट पीता वृद्ध

मनोज मल्हार

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    कितना गाढ़ा है सिगरेट का धुआँ

    गहराता और फैलता

    कितना रसायनी

    कितना रहस्यमई मौत का आमंत्रण...

    सिगरेट बेचता वृद्ध

    सिकुड़ी आँखों से दुनिया देखता

    एक पका फल है।

    वह जानता है

    कभी भी रुक सकती है धौंकनी

    कभी भी थम सकती है धमनियाँ।

    जब वह पुल पर होता है

    उसके और मृत्यु के बीच सिर्फ़ एक थरथराता पुल है

    नीचे बही जा रही उद्दाम वेगी नदी...

    रोज वहाँ शव आते हैं

    चिताएँ सजती है

    मंत्रोच्चार! और दूर तक फ़ैल जाता है धुआँ।

    ज़िंदगी और मौत की तरह मिल जाता

    चिता और सिगरेट का धुआँ...

    सर्द भरी शामें गुज़रती हैं

    ठिठुरती रातें...सदियों से मौसम बदलने का गवाह...

    दुनिया कितनी बदली कह नहीं सकते...

    सूरज वहीं हैं चाँद वहीं सर्दी की रातें

    वसंत की कूक वहीं...पथराए चहरे वहीं...

    वैसे ही फसल पकती हैं

    खेत जुतते हैं बीज रोपण होता है...

    कल जो शहर एक फ़र्लांग में सिमटा था...

    देखते-देखते इतनी विस्तृत ही गई हैं

    मानवीय दृष्टि चूक गई-सी है...

    वैसी भी आँखें साथ नहीं देती ज़्यादा...

    बहुत पास से

    द्रुत गति से आते लगते हैं दृश्य...

    एकदम से कोई बस देह पर चढ़ता आता है

    एकदम से रेहड़ी प्रकट सा होता है

    एकदम से कोई नायिका क़दमताल करती प्रतीत-सी होती है...

    ..

    पकी आँखों से दुनिया देखता वो

    कभी बलिष्ठ रहा होगा

    वक़्त को अपने इशारों पर नचाता...

    उसने भी जमकर आवाजाही की होगी

    लड़कियों के पीछे भागा होगा...

    वटवृक्ष गिरने की बेला में

    बचपन की यादें

    अनंत प्रकाश वर्ष दूर से आती धुँधली सी रोशनी होगी

    माँ की गोद की गर्माहट

    माँ के हाथों की छुअन के आस में इंतज़ाररत

    वो सिगरेट फूँकता

    नया जन्म देख रहा होगा...

    माँ की गोद, तुतलाया भोलापन

    अतुल्य बचपना...

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनोज मल्हार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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