सीधी रीढ़
sidhi reeDh
वह हाशिए पर
फेंके के जाने के विरुद्ध
अपनी रीढ़ को झुका लेते हैं
कितना पीडादाई है!
उनके घुटनों का ढह जाना
और लटक जाना
किसी पैंडूलम की तरह;
परिदृश्य में रहने से
भविष्य के सुनहरे पंख निकाल आते हैं,
माज़ी के तलवों पर लगी मिट्टी भी झड़ जाती है,
दिन दूधिया हो जाते हैं
और कुछ शामें सड़कों पर उभरते शोर में रपट जाती हैं
किंतु सीधी रीढ़ ख़र्च नहीं होती
हाँफते हुए जीवन पर,
ना बाजों की तरह झपटते
धर्म के पहरेदारों पर,
ना आस्था के पैंतरों पर,
उसके प्राण अटक जाते हैं बस
ईमानदार स्वीकृतियों पर।
- रचनाकार : ऋतु त्यागी
- प्रकाशन : हिंदवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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