पलक झपकते ही एक धड़कती भाषा
निरे शब्दों का बेजान ढेर बन जाती है
मृत्यु क़िस्तों में उद्घाटित होती है जीवन पर
तुम्हें झाड़ आए हैं अपने वजूद से
कलश में भर कर बहा आए हैं
तुम्हें अग्नि में त्याग आए हैं
त्याग आए हैं जल में हवा में माटी में
और आकाश में तुम्हें
घट-घट में कण-कण में जहाँ-जहाँ जो भी है
सबमें त्याग आए हैं तुम्हें
पर सहज तभी हो सकेंगे
जब त्याग पाएँगे अपने अवकाश में तुम्हें
जहाँ तुम
अपने ही बीज बनकर उग रहे हो हर तरफ़
मकई के दानों से बिखर-बिखर कर
छर्रों से उड़ रहे हो हर तरफ़ एक सिम्फ़निक क्रमहीनता में
एक-एक से हज़ार-हज़ार होकर
तुम अपनी भीड़ बन कर भरते जा रहे हो
हमारे अवकाश में
तुम्हारे किस-किस तुमको
त्याग सकेगा कोई?
आटे को और कितना पीस सकता है कोई?
- रचनाकार : तुषार धवल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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