उदित चन्द्रभागा केर तटपर
नित्य दिवाकर
भोरे उठिकऽ विदा होइत छथि
निज मन्दिर उद्धार करै लेल
कोणार्कक इतिहास कहै लेल।
ओइ बारह सय श्रमिक लोककें
पुनर्जन्मक बाट तकै लेल
जकरासँ निर्माण भेल अछि
दिव्य मन्दिरक रेखा-रेखा
युगल मूर्त्तिकेँ अद्भुत क्रीड़ा
मानवक आनन्दक क्षणकेँ
आँकि पाथरो मृदुल बनल अछि
जग आतपकेँ सहैत मानव
मन ओ पाथर मूर्ति देखिकऽ
नव जीवन केर सुख पयने अछि
तकरे निर्माता मानव
श्रमिकक पुनि जीवन दान करै लेल
उदित चन्द्रभागाक तटसँ
नित्य दिवाकर
भोरे उठिकऽ
कोणार्कक उद्धार करै लेल
विदा होइत छथि।
अद्भुत अछि इतिहास मन्दिरक
उत्कल केर उत्कृष्ट कला
बारह सय पूर्वक काल चलू लखि
राजाज्ञा
ओ आज्ञा छल अद्भुत हुअय मन्दिर
कलापूर्ण
पाथरपर मानव मनक तनक
आकलन तूर्ण
भारी पाथर सब जुटल रहय
बिनु कोनो एहेन सीमेन्ट
मसाला बिना
जाहिसँ जोड़ल जाइये खण्ड-खण्ड
पाथर वा ईंटा
पाथर वा ईंटा केर टुकड़ी।
ई भेल समस्या वास्तुकार लेल
अधिक गहन।
बड़ तर्क-वितर्कें
एकर पूर्तिक अन्वेषण
भेल एहि तरहेँ
जे लौह तन्त्रसँ जोड़ि-जोड़ि
पाथरक खण्ड हुअय सूर्य निलय
आ शिखर ऊपर
भारी चुम्बक केर पिण्ड राखि
मन्दिरमे जोड़ल लौह तन्त्रकेँ
कऽ आकर्षित अपना दिस
आकार ओकर अविकल राखत
भऽ अद्भुत वैभवपूर्ण
विषय चर्चाकेर
सूर्यक निलय बनत।
आइसँ
पूर्व साल बारह पहिने
आहूत भेल
बारह सय श्रमिकक संघ एक
आ पीटि नगाड़ा कहल गेल
बारहे बरखकेर अवधि बीच
दिन राति जागि
वा अन्न त्यागि
हे श्रमिक वर्ग! करु पूर्ण काज
जावत मन्दिर नहि हैत पूर्ण
तावत कियो नहि जाइ
अपन आवास
गृहक कऽ त्याग
साधना कठिन बूझि
निर्मित करु मन्दिर अति विशाल।
खट खट खट खट
काटल जाय लागल प्रस्तर पट
जनु युद्ध भूमिमे कर्मवीर
जितबा लेल उद्यत हो झटपट
चट चट चट चट
तारेसँ, जोड़ल जाय लागल
सभटा टुकड़ा आ टुकड़ी, पट
भऽ गेल व्यस्त तन्मय
मन्दिर लेल
उद्यत
श्रमिकक दल।
दिन कखन भेल।
आ राति कोना बीतल
एतबो नहि जानि सकल
ओ सकल श्रमिक
आ बीति गेल
जनु निमिष मात्रमे
बारह बरखक कठिन अवधि
भऽ गेल पूर्ण मन्दिर विशाल
छल कला जगत केर चमत्कार।
मन्दिर तारेपर छल जोड़ल
हृत्तन्त्री स्पन्दित जनु हो
श्रमिक वर्ग केर
राग विरह केर बारह बरखक
अवधि प्रवासक
बान्हल जनु हो
आज्ञा ओ राजाज्ञा छल जे
जँ नहि होयत पूर्ण एकर निर्माण
काटिकऽ हाथ श्रमिक केर
फेकल जायत
सागर तटपर।
मन्दिर भऽ गेल पूर्ण
मुदा थिर नहि होइ छल
मंगल घट मन्दिर शिखर उपर।
घट टगि जाइत छल
ओ इतर मांगलिक
संकेते संत्रास बनल छल।
ई जानि दिनकरक हृदय हिलल
आ कानि गेल पाथर-पाथर
थर-थर भाग्येँ
बारह सय श्रमिकक सौभाग्या
महिला केर आँचर मलिन बनल
आ पतित हुअय लागल तारा।
तखनहिँ दिनकर किछु भऽ सचेत
अपनहिँ मनक किरण तरंगे
एक बालकक हृदय जाय
किछु भाव पठौलनि
ओ बालक भऽ गेल आर्त्त पिता लेल।
'माँ माँ, पिता कखन औता
'औता, जल्दी, नहि अनभरोस करु'
माता बाजलि धैर्य दैत
आ पार्श्व घुमि
धरतीकेँ नोरे भिजा देलक।
'की कनइत छी?
'नहि, जारनि काँचे अछि
एकरे धुआँसँ
साश्रु बुझाइये नयन हमर।'
नहि नुका सकलि ओ अपन वेदना
तैयो कहैत गेल
'जखन औता पिता अहाँ केर
चानन चेरा लऽ
पाक करब
आ मह-मह चहुँ दिस करत
हैत आह्लादित तखने दिग दिगन्त।'
'नहि-नहि हमरा सहल ने होइये
आब...नहि तातक बिनु
छन भरियो हमरा रहल ने होइये’
कनैत बालक सूति रहल
आ तन्द्रामे
चलि विदा भेल कोणार्क द्वारपर।
होइते भोर ओ पहुँचि गेल
बुझि गेल समस्या जाय ओतय।
किछु कनफुसकी
किछु गाछ-पात
कहि देलक जेना सभ बात
बुझिकऽ सूर्यदूत जनु बालककेँ।
ओ बालक चढ़ि गेल शिखर उपर
अति त्वरा वेगसँ मन्दिरपर
मंगल घट थिरकऽ उतरि गेल
अनुगुंजित भ’ गेल मधु प्रभातमे
मंगल ध्वनि
नहि काटू श्रमिकक हाथ आब
अवरुद्ध भेल
पूर्वक राजाज्ञा।
कर कटनिहार भऽ अति हताश
'पुछलक
के कयलक घटकेँ स्थापित?
ओ बालक छल
नहि एहि श्रमिक वर्गक सदस्य।'
ओ छोट साल बारहक बच्चा
बड़ सुन्दर सन
बाजल
'हमहीँ कयल अपन
तातक कोरा लेल एहेन काज।'
बालक नहि भेल श्रमिक
भिन्न ओ श्रमिकवर्गसँ
तेँ श्रमिकक कर
काटल जायत
आइ अवश्ये
दुष्ट एक ओइ कटनिहारसँ
कऽ अन्वेषण
नृपसँ पुनि आदेश दियौलक
छनमे बालक त्वरा वेगसँ
कोणार्कक ओ चमत्कारमय
सूर्य निलय केर शीर्ष उपर
चढ़ि अट्टहास कऽ
धरती माँ केर कोरामे
झट नुका गेल
बस
एक धमाका शब्द भेल
चीत्कार उठल
आ शोणित केर बहि गेल धार
ई की?
ताण्डव केर ध्वनि शिव कयलनि?
पुछलक जन-जन
दौड़ि-दौड़िक’।
देखल
जीवन हीन शरीरक
अंग अंग छिरियायल
कयल चीत्कार
सकल जन, दिग दिगन्त
दिवाकर स्वयं हतप्रभ
मौन भेला।
आ ध्वंस भेल ओ यज्ञ
जेना हो दक्ष यज्ञमे सती गमन।
तखनहिं राजाज्ञा भेल
'हैत नहि यज्ञ जाप
आ सकल श्रमिक भऽ मुक्त
पाबि निज राशि
जायत निज गृहक हेतु’
राजाज्ञा भऽ गेल ओहि कालमे
नहि होयत किछु यज्ञ जाप
एखनहिं भऽ मुक्त श्रमिक
जायत निज गृह।
जेना कहि देलनि दिवाकर—
स्वयं आबि
'हम देव न आडम्बरमय छी
हम कर्मरूप
तेजोमय सदिखन चलनिहार
नहि उपचारक वा धनक दंभ
बान्हत हमरा
आडम्बरमे।
प्रति मानवक हम कर-करमे
वरु यज्ञ भाग नहि लेब स्वयं
बनि जगन्नाथ बिनु करक रहब
आ हमर हाथ अछि विद्यमान
प्रति मानवमे, जे कर्म करय
हम पसरि जायब
निर्माण निरत
विश्वक प्रति-प्रति ओइ मानवमे
जे जागत दिनकर किरण संग
कहि जगन्नाथ जय काज करत
कर्त्तव्य पथक सभ योगीमे
हम बसल रहब।
तेँ नहि बान्हू
कोणार्कक एहि संकुचित निलयमे
सीमित भऽ हम रहि न सकब।
ई दंभपूर्ण राजाज्ञा छल
जे काटि सकल निर्माण—पुरुष केर हाथ
यज्ञ परिपूर्ण होयत।
से चूर्ण करै लेल
बालक रूपे स्वयं आबि हम
प्राण शरीरक नष्ट कयल
आ भ्रष्ट मार्ग अवरुद्ध कयल।’
निमिषमे
श्रमिक पाबि मुक्तिक आज्ञा
चल गेल अपन गृह
आ पंडित कहलनि राजासँ
एहि मन्दिरक देव नहि पूज्य थिका
नहि अंश बलिक ओ आब लेता
हैत बड़ विघ्न, देशमे द्रोह, राजकेर हानि
यदि उपचार यज्ञ वा जापक कहियो हैत एतय।
'ओ के छल जे ई काज कयल?
सुत ककर? जकर दुर्भाग्य भेल?‘
सोचइत ओइ बालक केर स्वयं, पिता
निज गृह आयल
आ अबितहिं पुछलक, 'प्रिया?
कतय अछि सुत सुन्दर
अछि हमर कान
अति व्याकुल 'तात'क,
निश्छल सम्बोधन सुनबा लेल
की कहू! बचाक’ आबि गेलहुँ
ई दूनू हाथ ल’।
यदि नहि अबिते ओ बीर बाल
आयल आ दऽ केँ निज आहुति
ओ बचा देलक
बारह सय श्रमिकक दूनू हाथ'
किछु भऽ विह्वल, किछु भऽ सशंक
बाजलि माता—
'ओ तात तकै लेल
व्याकुल छल।
काल्हिये भागल, अन्हरोखेमे
निज तात तकै लेल
कोणार्कक ओइ दिव्य भूमि लेल।’
भऽ कऽ हताश
ओ श्रमिक
भूमिपर खसल
“आह! शिशु! कयल केहेन तोँ काज!
हमर ई हाथ बचाक’
प्राण रहित जीवन केलेँ!”
चीत्कार ओकर पसरल चहुँदिस
कम्पित भऽ गेल जनु दिग-दिगन्त
तकरे जीवन किरण तकै लेल
नित्य सूर्य ओइ सागर तटसँ
विदा होइत छथि
एकरे क्रममे
दै छथि सभकेँ ज्योति
किरण
आ स्वयं थाकिक’
साँझ भेलापर
अन्धकारमे सूति रहै छथि।
पुनः प्रभातक मधुबेलामे
अपन किरणसँ प्रेरित भऽ केँ
जागि उठै छथि।
एखन चन्द्रभागा केर तटसँ
विदा भेल छथि स्वयं दिवाकर
चरैवेतिक मन्त्रोच्चारण
बाधित नहि हो
सैह कहै लेल।
- पुस्तक : आगत क्षण ले (पृष्ठ 6)
- रचनाकार : नीरजा रेणु
- प्रकाशन : श्री शेखर झा
- संस्करण : 1997
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.