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शज़रा*

shazra*

अखिलेश जायसवाल

और अधिकअखिलेश जायसवाल

    अभी मैं सामने लेकर बैठा हूँ

    अपनी आठ पीढ़ियों का शज़रा,

    इसमें मैं अपने भाइयों के साथ

    सबसे नीचे हूँ।

    इसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं

    और शाखाएँ नीचे की ओर फूटती जा रही हैं।

    वैसे भी संसार वृक्ष को अवाक्शाख बताया गया है—

    ऊर्ध्वमूलमध: शाखमश्वत्थं...I

    मेरे बच्चे इससे फूटते हुए अभी नए कल्ले हैं।

    जिस वृक्ष की मैं अभी पतली शाखा हूँ

    उस वृक्ष की मेरे पिता प्रधान शाखा हैं,

    दादा तने हैं और परदादा मूल।

    प्रपितामह के साथ बहुत ही गझिन

    और काफ़ी गहराई में लगी हुई

    अदृश्य जड़ों का एक संसार है।

    प्रपितामह के पितामह तक

    मेरी दृष्टि जा पाती है

    उसके पूर्व सब कुछ

    समय के गह्वर में धँसा हुआ

    एक इतिहास है

    जिसकी मैं केवल कल्पना कर सकता हूँ।

    मैं प्रायः सोचता हूँ—

    अपने प्रपितामह के पूर्व-पूर्व प्रपितामहों के बारे में—

    वे कैसे रहे होंगे?

    उनकी सोच कैसी रही होगी?

    उनके सरोकारों के दायरे में क्या-क्या शामिल था?

    क्या वे साहित्यिक मिज़ाज के रहे होंगे?

    क्या उनमें किसी ने शब्दों की साधना की होगी?

    क्या कोई सुरों के दर पर भी

    आमदरफ़्त करता रहा होगा?

    हो सकता है कोई विलक्षण प्रतिभा वाला रहा हो!

    उनके जीवन में कितना अवकाश था?

    उनके हृदय में कितनी सहिष्णुता थी?

    वस्तुतः इस शज़र की जड़ों का

    उद्गम स्थल और प्रस्थान बिंदु कहाँ पर होगा?

    और इसके पल्लवन की चरम परिणति का

    आकार और रूप क्या होगा?

    मैं जानना चाहता हूँ

    अपनी जड़ों को,

    मै देखना और छूना चाहता हूँ

    अपने इस उत्स के स्रोत को,

    मैं मिलना चाहता हूँ

    उस संतति वत्सल मृदा से,

    मै देखना चाहता हूँ

    अपने ही असंख्य चेहरों को।

    मैं उन्हे बताना चाहता हूँ

    कि तुम ज़िंदा हो मुझमें

    और सदियों-सहस्त्राब्दियों पहले

    वो मैं ही तो था तुममें।

    तुमने जो रोपा था एक शब्द मुझमें

    एक छतनार गाछ बन चुका है,

    और इसके फूलों को जब भी

    माथे से लगाता हूँ

    लगता है तुमने ही तो मेरे माथे पर रखा है हाथ।

    तुमने कभी मुझमें डाली थी

    एक प्रेम से उमगी गुन-गुनाहट

    जो आज पूरा-पूरा एक राग़ बनकर

    बज रही है मुझमें।

    मेरी आनुवंशिकी के सभी तरल तत्वों में

    घुला हुआ है तुम्हारा हस्तक्षेप और हस्ताक्षर।

    जो मेरी मानविकी की सारी विधाओं में

    सुनाता रहता है तुम्हारा पार्श्व संगीत,

    एक ऐसा संगीत

    जो भरता है मेरी शुष्क आँखों में प्रेम के आँसू,

    करता है मेरे हृदय के तंग कोनों को रौशन ख़्याल,

    भरता है मेरी कृपण बाहों में आलिंगन का विस्तार,

    मुझमें आदिम से आदमी होने का संस्कार

    और मेरे अलसाए शब्दों में समकालीनता की धार।

    तुमने विरासत मे जो सौंपा था चेहरा

    उसे हाथों में लिए फिरता हूँ,

    हिफ़ाज़त करता हूँ

    एक नृशंस समय की सर्द हहराती हवा से

    जो सुन्नकर देती है संबंधों के स्पर्श बोध को,

    हिफ़ाज़त करता हूँ

    बड़ी तेजी से फैलते अँधेरे की काली रंगत से

    जिसमें खो जाती है विरासतों की शिनाख़्त।

    मेरे पुरखों!

    मैं हिफ़ाज़त करता हूँ

    ताकि मैं तुम्हें अक्षुण्ण ले जा सकूँ

    तुम्हारी आगामी शाखाओं तक।

    किसी दिन अवकाश लेकर

    बैठूँगा तुम्हारे साथ,

    मै सुनाना चाहता हूँ

    अपनी लिखी कविता की

    दो चार पंक्तियाँ

    और सुनना भी चाहता हूँ

    उनकी लिखी कुछ सतरें।

    मैं गुन-गुनाना चाहता हूँ

    उनके सुर में सुर मिलाकर,

    मैं नाचना चाहता हूँ

    उनके पैरों से ताल मिलाकर।

    ***

    * वंशवृक्ष को उर्दू मे शज़रा कहा जाता है। इसके दूसरे नाम वंशावली, कुर्सीनामा और नसबनामा भी हैं। यह वृक्षवत् होता है, इसीलिए इसे ऐसी संज्ञा दी गई है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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